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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/५९५

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सूरसागर।


तहां ब्रजकी सुधि आई ॥ गुरुसों कह्यो जोरि कर दोऊ दक्षिणा कहौ सो देउँ मैंगाई । गुरुपत्नी कहो पुत्र हमारो मृतक भयो सो देहु जिवाई ॥ आनि दिए गुरुसुत यमपुरते तब गुरुदेव अशीश सुनाई । सूरदास प्रभु आइ मधुपुरी ऊधो को ब्रज दियो पठाई ॥४॥ अध्याय॥४६॥उद्धवजआगमनहेतु ॥ नट ॥ यदुपति जानि उद्धव रीति । जिहि प्रगट निज सखा कहियत करत भाव अनीति । विरहदुख जहां नाहिं जानत नहीं उपजै प्रेम । रेखनरूप मन वरन जाके यहिधरयो वह नेम ।त्रिगुणतनु करि लखत हमको ब्रह्ममानत और । विना गुण क्यों पुहुमि उधरै यह करत मन डोर ॥ विरहरसके मंत्र कहिए क्यों चलै संसार । कछु कहत यह एक प्रगटत अतिभरयो अहंकार ॥ प्रेमभजन ननेकु याके जाइ क्यों समुझाइ । सूर प्रभु मन इहै आनी ब्रजहि देउँ पठाइ॥५॥ नट ॥ इह अद्योत दरशीरंग । सदा मिलि यकसाथ वैठत चलत वोलत संग । बात कहत नबनत यासों निठुर योगी जंग । प्रेम सुनि विपरीत भाषत होतहै रसभंग ॥ सदा ब्रज को ध्यान मेरे रासरंग तरंग सूर वह रस कहौं कासों मिल्यो सखाभुरंगानयासंग मिलि कहाँ का सों बात । यह तो कथत योगकी बातें जामें रस जरिजात ॥ कहत कहा पितु मात कौनको पुरुष नारि कहा नात । कहा यशोदासीहै मैया कहा नंद समतात ॥ कहा ब्रज भानुसुता सँगको सुख यह वासर वह प्रात । सखी सखा सुख नहीं त्रिभुवनमें नहि वैकुंठ सुहात ॥ वै बातें कहिए केहि आगे यह गुनि हरि पछिताते । सूरदास प्रभु ब्रजमहिमा कहि लिखी वदत वलभ्रात॥६॥ धनाश्री ॥ कहां सुख ब्रजको सो संसार । कहां सुखद वंसीवट यमुना यह मन सदा विचार ॥ कहां वनधाम कहां राधा सँग कहाँ संग ब्रजवाम । कहाँ रसरास वीच अंतर सुख कहाँ नारि तनु तामीकहां लता तरूतरुप्रति झूलनि कुंजरवन धाम । कहा विरह सुख विनु गोपिन सँग सुरश्याम ममकाम सखा हमको मिले ऊधो वचननमारत ताम ॥ भावभजन विना नाहीं सुख कहां प्रेम अरु योग । काग हंसहि संग जैसो कहां दुख कहां भोग । जगतमें यह संग देखो वचन प्रति कहै ब्रह्म । सूर ब्रजकी कथा सो कहै यह करै जो दंभा ॥७॥ कान्हरो ॥ हिंस कागको संग भयो। कहां गोकुल कहां गोप गोपिका विधि यह संग वयो । जैसे कंचन कांच संग ज्यों चंदन संग कुगंधि । जैसे खरी कपूर दोउ एक सम यह भई ऐसी संधि । जलविनु मीन रहत कहुँ न्यारे यह सो रीति चलावत। जव ब्रजकी बातें यहि कहियत तबहिं तवाहि उचटावत ॥याको ज्ञान थापि ब्रजपठऊं और न याहि उपाव । सुनहु सूर याको वन पठऊ यह वनगो दाव॥८॥धनाश्री ॥ याहि और कछु नहीं उपाइ । मेरो प्रगट कह्यो नहिं वदिहै ब्रजही देउँ पठाइ । गुप्तप्रीति युवतिनकी कहिके याको करौं महंत । गोपिनको परवोधन कारण जैहै सुनत तुरंत ॥ अति अभिमान करेगो मनमें योगिनकी इह भांति । सूरश्याम यह निहचै करिकै बैठतहै मिलि पांति ॥९॥ जवहीं यह कहौंगोवाहिामोहिं पठवत गोपिकनपैः हरष ढहै ताहियोगको अभिमान करिहै ब्रजहि जैहै धाइकहेगो मोहिं श्याम मानत करौं यह चतु राइआइ गए तेहि समय ऊधो सखा कहि लियो बोलि । कंध धरि भुज भए ठाढे करत वचननि ठोलि ॥ बार बार उसास डारत कहत ब्रजकी बात । सूर प्रभुके वचन सुनि सुनि उपगसुत मुसकात ॥ धनाश्री ॥ हरि गोकुलकी प्रीति चलाई। सुनहु उपॅगसुत मोहिं न विसरत ब्रजवास सुखदाई ॥१०॥ यह चित होत जाउँ मैं अवहीं यहां नहीं मन लागतागोपी ग्वाल गाइ बन चारण अति दुख पायो त्यागत ॥ कहा माखन रोटी कहां यशुमति जेवहु कहि कहि प्रेम । सूरश्यामके वचन हँसत सुनि थापत अपनो नेम ॥११॥ रामकली ॥ यदुपति लखो तेहि मुसकात । कहत हम मन रहे