पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६३०

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- दशमस्कन्ध-१० (५३७) लागत शशि जावतं युग बीते । ज्योति पतंग देखि वपुंजारत भए-नप्रेम घटरीत|कहिअलि क्यों विसरति वै वातें सँग जो करी ब्रजराजै । कैसे सूरश्याम हम चाँडै एक देहके काजै ॥ २८ ॥ ऊधो जो हरि हितू तुम्हारे । तो तुम कहियो जाइ कृपाकरि एदुख' सबै हमारे ॥ तनुं तरुवर. उर श्वास पंवनमें विरह दवा अतिजारें । नहिं सिरात नहिं जात छारकै संलगि सुलगि भए कारे । यद्यपि प्रेम उमाँगे जल सीचे वरप वरपि धनहारे। जो सींचे यहिभांति जतन कार तौ एते प्रतिपारे। कीर कपोत कोकिला चातकं वधिक वियोग विडारे । क्यों जी यहिभां ति सूरप्रभु बजके लोग विचारे॥२९॥धनाश्री।। हमें तो इतनोही सो काजाकैसेहूं अलि कमलनैनको ब्रजग्लैआवहु आजु। और अनेक उपाव तुझारे संकलं करहु सुखराजु । कैसेहैं निवहत अवलनपै कठिन योगके साजु ॥ नखं शिख सुभग श्यामघन तनको दुरशनहरति विथाजु । सूरदास मनं रहत कौनविधि वंदन विलोकंनि बाजु ॥३०॥ अब हरि कौनके रसगीधे । सकत नहीं निरवां रि ऊधो शशि वदरी ज्यों वीधे॥वरतहीननवलडुलाई तनी सकल कुलकानि।अंधकार छांडी मए गहिल वान फून लकुट विनपानि ॥ जतन घुरि निर्गुणभए सब नरकी अभिलाप विना चरणसरो न देखे॥३१॥फान्हगे। हरि ठाकुर लोगन सो मधुकर कहो काहेकी प्रीति ।ज्यों कीजै तो होइ जल धर रविकी ऐसी रीति ॥ जैसे मीन 'कमल चातकही ऐसे दिन गए वीति । तरफत जरत पुकारत निशिदिन नाहिन कछु इहां नीति ॥ मनहठ परयो कमंध जोधालौं हारेहु नाही जीति । रुकत नप्रेम समुद्र सूर वल वारूहीकी भीति ॥ ३२ ॥ सारंग ॥ को गोपाल कहांके वासी कासाह पहिचांनि । तुम संदेश कौनके पठये कहत कौनके आनि ॥ अपनी चोप मधुप उड़ि वैठत भोर भले रसजानि । पुनि वह बेलि बढो के सूखो ताहि कहा हितहानि ॥ प्रथम वैन मनहरयो अहिरनको रांग'रागिनी गनि । पुनि वह वधिक विश्वासघाती हनत विषम शरतानि॥ पंय प्यावत पूतना विनाशी छठे जु बलिसे दानि । शूपनखा ताडका निपाती. सूरदास यह वानि ॥ ३३॥ मलार ॥ मधुकर कौन मनायो माने । अविनाशी हरि अंग तुम्हारो कहा प्रीति रस जाने । सिखवहु'जाई समाधि योग रस जे सब लोग सयाने । हम अपने ब्रज ऐसेहि रहिहैं विरह वाइ वौराने ॥ जागत.सोवत स्वमदिवस निशि रहि हैं रूप परवाने । वारक वाल किसोरी लीला सोभा समुद्र समानै । जिनके तन मन प्राण सूर सुनि मुख मुसकानि विकानै । परीजू पयनिधि अल्प द जल सुपुनि कोन पहिचान ॥३४॥ सारंग ॥ हरिसुत सुत हरिके तनु आहि । इहांको कहै कौनकी चातें ज्ञानं ध्यान सुमिरौं को काहि।कोमुख ममरतास युवतीको को जिनि कंस हते। हमरे तो गोपति सुंअधिपति वनिता औरनते ॥ मोरज रंध्र रूप रुचिकारी चितै चितै हरिहोत। कबहुँक करनी समेतिले नैक नमानकै सोत ॥ तारिपु समै संग शिशु लीन्हें पयावत तनु घोप। सूरदास स्वामी मनमोहन कत उपजावत दोष ॥ ३९ ॥ अब हरि और भए माई इतनी दूरि। मधुकर हाथ संदेशो पठयो चतुरं चातुरी-घूरिः।। रूपराशि सो सबै गुण परमिति श्याम सजीवन भूरि । तिनसों कहेंत मनहिमन समुझई हैं संवही भरि पूरि ।। इक मुनि सुर ऐसेहि यातनको रही विरह झंक झुरि। तापर छपद कियो चाहत है कोइलाहूते धूरि ॥३६ ॥ कान्हरो ॥ कहा जाने कोऊ परंपीर । नंदनंदनके विछुरे सखीरी जैसी सही शरीर । कहि कहि कथा मधुप समुझावत मनराखेहु धरि धीर। नैन मीन कैसे संचपावत विनदरशन हरिनार ।। योग समाधि.कहा हम जानें ब्रजवासिनी अहीर । सोइ कीजै जो मिले सूरप्रभु भव ऋतु रंगनितीर ॥ ३७॥ हम त्रियं मृतक