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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६३१

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(५३८)
सूरसागर।


जीवत शशिसाखी । तुम अलि रवि हित कमल विशेषी हरे विकल मधुमाखी ॥ सुरली अघर सुधाध्वनि सुनि सुख संच्यो श्रवण, दुआर । मधुहारी अकूर वधिक मुखः अवधि लगाई छार ॥ मनको विरह नैन कहा जानै श्रुति मत तुही सुनावैः । सूर भस्म अंग लगी कुटिलता तरु योगे गुणगावै ॥३८॥ रामकली ॥ हमारी सुरति लेत नहिं माधो । तुम अलि सब स्वारथके गाहक नेह नजानत आधो ॥ निशिलों मरत कोश अभ्यंतर जोहित कहो सुथोरी । भ्रमत भोर सुख ओर सुमनसंग कमल देत नाहि कोरी ॥ राकारास मास ऋतु जेती रजनि प्रीति, नाह थाही । वैस संधि सुख तजी सूर हरि गए मधुपुरी माही ॥३९॥ धनाश्री ॥ कैसे जीवें ऊधो हरि परदेश रहे । गरजि गरनि धन वरषन लागे नदियां नार वहे ॥ कहि पठवो मधुपुरी सखीरी मेरेहोतो चरण गहे । वासर गए निहारत मारग चातक रौनि डहे ॥ कासो कहाँ तपत मना निशिदिन को इह पीर लहै । हमहूं किन ले जाहि सूर प्रभु को ब्रज दुखहि सहे ॥४०॥ हरि हम काहेको योग विसारी, प्रेम तरंग बूडत ब्रजवासी तरत श्याम सोइ हारी । रिपु माधव पिक वचन सुधाकर मरुत मंद गति, भारी । सहि न सकत अति-विरह त्रास तनु-आगि सलाकनि जारी ॥ ज्यों जल थाके मीन कहा करै तेउ हरि मेलि अडारी विजय अधोमुख लेन सूर-प्रभु कहिअह विपति हमारी ॥४१॥ जो पै इहै हुती उनके मन । तो तब कमल नयन हम कारण कहा किये ब्रज एते जतन ॥ विष जल व्याल वरुन वर्षानल अनेक अशुभ हति राखे । संतता संग रहत काहू मिस निठुर वचन नहिं भाषे । उन विपदानि कुंचित जो करते कछुअन जीव सराहती। विधि वश नाउँ बहुरि फिरि मिलती एतो विलंब कत सहती ॥ कहिये कहा जो सब जानतहै यातनुकी गति ऐसी । सूरदास प्रभु हित सुचित्त कै वेगि प्रगट की वी तैसी ॥४२॥ मोहनसों मुख । बनत न मोरे । जिन नैनन मुखचंद्र विलोक्यो जात तरणि नहिं जोरे ॥ मुनि मना मंडन योगा कर्म ऋतु मंदिर भार सहत कहि कोरे। बनत नहीं द्वै कमलके बंधन कुंजर क्यों वहत विनु तोरे लीलांबुज तनु लील वसन, मणि चितयो न जातः धूमके भोरे । सूरदास जे कमलके विरही-चप कवन लागत चित थोरे ॥४३॥ सोरठ ॥ विलग हम मानें ऊधो काकोतिरसत रहे वसुदेव देवकी नहि । हितु मात पिताको ॥ काको माता पिता को काको दूध-पियो हरि जाको । नंद यशोदा लाड़ लड़ा यो नाहिंन भयो हरि ताको ॥ कहिषो जाइ बनाइ बात यह को हितहै अबलाको । सूरदास प्रभु प्रीति है कासों कुटिल नीच कुविजाको उपरि आये कान्ह कपटकी खानि । सरवस हरो बजाय वाँसुरी अब छांडे पहिचानि ॥ जिन पय पियत पूतना मारी दालत करी न हानिावलि छलि बांधि पताल पठाये नैक नकीनी कानि ॥ जैसे वधिक अधिक-मृग विधवत रांग रागिनी ठानि अवध ॥ आश, परतीति ओटदै हनत विषम शरतानि ॥ जैसे नाट सरुट रतन उरते तुम ऊधो अति जानी सूरदास प्रभुके जिय भावै आय सुमाथेमानी ॥४५॥ सारंग ॥ जीवन मुख देखेको नीकोदरश परस दिन । राति पाइअत श्याम पिआरे पीको ॥ सुनो योग केहि काम हमारे जहां ज्यान है, जीको । नैन मंदिक मृतक देखि वर मधुप ध्यान पोथीको ॥ आछे सुंदर श्याम हमारे और जगत सब फीको । खादी मही कहा रुचि मानो सूर खवैया घीको ॥४६॥ मधुकर को मधुवन रहियो । काके कहे संदेश ल्याये किन लिखि लेखि दयोको वसुदेव देवकी नंद को को यदुवंश उजागर । इहां तिन्हसो पहिचानि न काहू फिरि लेइजैए काग । गोपीनाथ राधिका वल्लभ-यशमति सुवन कन्हाई । दिन प्रति । लेत दान वृंदावन दूनी रीति चलाई । मधुकर होतुम भले सयाने कहत औरको औरासूर सुपंथ का ॥