घटत जैसे तैसही यातन गयो । भेदिआ सों भेद कहिवो छेद से छाती परौ । अंतनाहिंन और ॥ आवै एमुख सब कुविना करौ ॥ योग जप तप ध्यान पूजा इहतो हेलयानआवई । सुधारस जेहिं स्वाद चाख्यो तिनहि और न भावई ॥ ज्ञान दृढ तप ध्यान पूजा हरिचरण जिनके हिए । विमुख हैं जे सूरस्वामी फल कहा तिनके जिए ॥५५॥ उद्धववचन ॥ मलारा॥ वै हार सकल ठौरके वासी । पूरण ब्रह्म अखंडित मंडित पंडित सुनिन विलासी ॥ सप्तपाताल अध ऊर्ध्व पृथ्वीतल जल नभ वरुन वयारी । अभ्यंतर दृष्टी देखनको कारणरूप मुरारी ॥ मन बुधि चित अहंकार दशेन्द्रिय प्रेरक थमकारी । ताके काज वियोग विचारत ये अबला बजनारी ॥ जाको जैसोरूप मनरुचै सो अपवश करिलीजै । आसन वैसन ध्यान धारणा मन आरोहण कीजै ॥ षटदल अष्ट द्वादशदल निर्मल अजपा जाप जपाली । त्रिकुटी संगम ब्रह्म द्वार भिदि यो मिलिहै वनमाली ॥ एकादशगीता श्रुति साखी जिहि विधि मुनि समुझाए । ते संदेश श्रीमुख गोपिनको सूर सुमधुप जनाए ॥५६॥ अथ गोपी-वचन ॥ कर्णाटी ॥ देखिरे प्रेमप्रगट द्वादश मीन । ऊधो एक बार तदलाल राधिका बनते आवत सखिही सहित गिरिधर रसभीन । गए नव कुंज कुसुमनिकपुंज अलि करें गुंज सुख हमदेखिभई लवलीन ॥ षट उडुगण षटमणिधर राजत चौवीसधात केहि चित्रकीन । पट इंदु द्वादशपतंग मनों मधुप सुनि खग चौअन माधुरी दशपीन।द्वादश विनाधर सो वानवै वत्र कन मानो पटदामि नि षट जलजहँसिदीन । द्वादशधनुष द्वादशैविष्का मनमोहन षटै चिबुक चिह्न चित चीन ॥ द्वादशव्याल अधोमुख झूलतं मधुमानो कंजदल सो वीसदै वंसीन । द्वादशै मृणाल द्वादश कंदली
खंभ मानों द्वादश दारिम सुमन प्रवीन ॥ चौवीस चतुष्पद शशि सौवीस मधुकर अंग अंग रस कंदनवीनानीलं नील मिलि घटा विविध दामिनि मनो षोडश श्रृंगार सोभित हरिहीन ॥ फिरि फिरि चक्र गगनमे अमी वतावत युवती योग मौनकहुँ कीन । वचन रचन रसरास नंदनंदन ते वही योग । पौन हृदये लवलीन ॥ नंद यशोदा दुखित गोपी गाय ग्वाल गोसुत सब मलिन गात दिनही दिन
दुखिनाबकी वका शकटा तृण केशीवच्छवृषभ रासभै आलि विनु गोपाल इनि वैर कीन । उद्धव यहाँ मिलाइ परै पाँय तेरे सूरप्रभु आरति हरॆ भई तनुछीन ॥५७॥ गौरी ॥ मधुकर ल्याए योग सँदेशोभली श्याम कुशलात सुनाई सुनतहि भयो अंदेशौं।आशरही जिय कबहुँ मिलैकी तुम आवतही नाशी युवतिनि कहत जटा शिर बांधौ तौ मिलिहँ अविनाशी ॥ तुमको जिन गोकुलहि पठाए ते वसुदेव कुमार । सूरश्याम हमते कहुँ न्यारे होत न करत विहार ॥५८॥ मलार ॥ मधुकर वादि वचन
कत बोले । आपुन चपल चपलके संगी चपल चहूँ दिश डोले। इन वातनको कौन पत्यैहै अंतर कपट न खोले । कंचन कांच कपूर कटुखरी एकहि सँग क्यों ताले । अब अपनीसी हमहि दिखा वत मति भूलहु यहु जोलै । सूरश्याम विन रटत विरहिनी विरह दाग जनि छोले ॥ ५९॥ नट ॥ ऊधो सुनत तिहारे बोल । ल्याये हरि कुशलात धन्य तुम घर घर पारयो गोल ॥ कहन देहु कहा करे हमारो वरु उठि जैहै झोल। आवतही याको पहिचान्यो निपटहि ओछो तोल ॥ जिनकेसोच नहीं कहिवेको ए बहुगुणनि अमोल । जानी जात सूर हम इनकी बतचल चंचल लोल ॥६०॥ ॥ धनाश्री ॥ मीठी बात हमारे आगे वारवार अलि कहा सुनावहु । हमहिं खिझाइ आए पति खोवंत यामें कहो कहा तुम पावड।कहों नजाइ नगर नारिनसो वैसुनि तिनको समुझावहु । ब्रजवासिनी अहीरिनि विरहिनि तिन आगे तुम काहे गावहु ॥ लोचन गए श्याम सँगही बड़े चतुर तो वो नहीं बुलावहु । सुर चकोर चंद्र दरशन तजि कैसे जीवें तरनि दरशावह ॥६१॥ धनाश्री ॥
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सूरसागर।
