पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६३४

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दशमस्कन्ध-१० (५४) मधुकर कहा करन ब्रजआए। योग ज्ञान हमको परवोधन हरितो नहीं पगए ॥ जामुख मुरली | धरि अद्भुत सुर गाइ बजाइ रिझावत । तेहि सुख श्याम कहेंगे ऐसे यह तो तुमहि वनावतः।। अंग अंग आभूषण अपने कर करि हमर्हि वनावै । सूरदास प्रभु कैसे तुमकर कंथा जोरि पठावै ॥ ६२ ॥ कहा कहतरे मधुमतवारे ।आयो धाइ योग उपदेशन प्रेमभजन गहिडारे ॥ जोह मुख सुधा श्याम रस अचवत अब पीव जल खारे। यहअरहिते अतिखोटो डारतिही अहिकारे। हम जान्यो यह श्याम सखाहै यहत्ती और न्या।सूरकहा याके मुख लागत कौन याहिं अवगारे६३ रेअलि कासों कहत बनाइ । विन समुझे फिरि फिरि बूझतहै चारक बहुरोगाइकौने गमन कियो स्पंदनचढ़ि सुफलकसुतके संग । किन बधिरजक लिए नानापट पहिरे अपने अंग ॥ केहि हति चापि निदरि गज मारयो केहि बल मल्ल मथिभाने । उग्रसेन वसुदेव देवकी केहि पनि गडहति आने काकी करत प्रशंसा निशि दिन कौने घोष पठाए । केहि मातुल वधि लियो जगतयश कौन मधुपुरी छाए।।माथे मोर मुकुट उरगुंजा मुख मुरली कल गानासूरदास यशोदानंदन गोकुल सदा विराजे६४सारंगातैअलि कहा पढी यह नीति।लोग वेद श्रुति ज्ञान रहित सब कहत कथा विप रीति ॥ जन्म भूमि जन जननि यशोदा केहि अपराध तनाअति कुल निर्गुण रूप जो अति सुखदासी जाइभजायोगसमाधि मूढ सुनि मारग क्यों समुझे हम ग्वारी।जो वै गुण अतीत व्यापकता तो हम काहे न्यारीरहि मधु ढीठ कपट स्वारथहित जिय येवचन विरोपै । मन क्रम वचन वचति वा नाते सूर श्याम तनु धोपे६५॥ सारंग ॥ मधुकर जाहि कहो सुनि मेरो। पीत वसन तनु श्याम जालकी राखत परदा तेरो ॥ यहि ब्रजको उपदेशन आयो कत जोरहो कार डेरो। एते मान यह सखी महाशठ छांडत नाहिंन खेरो ॥ ऐसी बात कहो तुम तिनसों होइ जो कहिवे लायक । इहां यशोदा कुंअर हमारे छिनु छिनु प्रति सुखदायक ॥ ज्यों तू पुहुप पराग छांडिकै करहि ग्राम वशवास । तो हम सूर इहै करि देखहि निमिप नछांडहिं पास ॥६६॥ रामकली ॥ऊधो माने साधि रहे । योग कहि पछितात मन मन बहुरि कछु नकहे ॥ श्यामको यह नहीं बूझे अतिहि रह्यो खिसाइ । कहा मैं कहि कहि लजानो नैन रह्यो नवाइ ॥ प्रथमही कहि वचन एकै लियो गुरु करि मानि । सर प्रभु मोको पठायो इहे कारण जानि ॥ ६७॥ कल्याण ॥ कहा न कीजें अपने काले अब दिन दशा ऐसो करि देखो जो हरि मिलें योगके साजै ॥माथे जटा पहिरि उर कंथा लावहु भस्म अंग मुख माजे । सींगी बजाइ पहिरि मृगछाला लोचन मंदि रहौ किन आजै ॥ सन्मुख है शर सहो सयानी नाहिंन वचन आजुके भाजे । योग विरहके वीच परम दुख मरियतुहे यह दुसह दुराजै । ऊधो कहै सत्य करि मानो वर्षा वदत पंचमी गाजे । ज्यों यमुना जल छांडि सूर प्रभु लीन्हे वसन तजी कुललाजे ॥ ६॥ सारंग ॥ ऊधो कहा मति दीनो हमाहिं गोपाल । आवहुरी सखी सब मिलि सोचें जो पावें नंदलाल ॥ घर वाहरते पोलि लेहु सब जावदेक ब्रजवाल । कमलासन बैठहुरी माई मंदह नैन विशाल ॥ पटपद कही सोऊ कार देखी हाथ कछु नहिं आई। सुंदर श्याम कमलदल लोचन नेकु न देत दिखाई ॥ फिरि भई मगन विरहसागरमें काहुहि सुधि नरही। पूरण प्रेम देखि गोपिनको मधुकर मौन गही। कछु ध्वनि सुनि श्रवणन चातककी प्राणपलटि तनु आए । सूरसो अबके टेरि पपीहै विरही मृतक जिवाए।।६९॥सारंग। मधुकर भलेही आए वीर। दुर्लभ दरशन सुलभ पाए जानिही परपीर ॥ कहत वचन विचारि विनवहु शोधि हो मनमाहि प्राणपतिकी प्रीति ऊधो हैकि इमसों नाहिं । कोन तुमसों कहै मधुकर कहन योगी नाहिं।।