पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६४

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सूरसागर-सारावली। (99) |कियो प्रसाद शांतना करिकै राजविभीपण दीन्ही । पुनि मंदोदार अचल आयु दै अभयदान सवकीनी ॥२९३ ॥ समाधान सुरगणको कारकै अमृत मेघ वरषायो । कृपादृष्टि अवलोकन कारकै हतकपि कटक जियायो । २९४॥निश्चर किये मुक्त सब माधव ताते जिये न कोय । निर्भय किय लंकेश विभीषण रामलषण नृप दोय ।।२९५॥ सीता मिली बहुत सुखपायो धरो रूप निज मायो। पुष्पकयान वैठके नीके चले भवन सुखछायो । २९६॥ चले पवनसुत विप्ररूप धरि भरतहि देन बधाई । जानि दूत रघुपतिको प्रमुदित भरतमिले तबधाई ॥२९७॥ सुनत नगर सवहिन सुख मान्यो जहँतहते चलेधाई । रामचन्द्र पुनि मिले भरतसों आनंद उर न समाई ।। २९८ ॥ कियो प्रवेश अयोध्या में तब घर घर वजत वधाई । मंगल कलश धराये द्वारे वंदनवार वधाई ॥२९९ ॥ राजभवन में राम पधारे गुरु वशिष्ठ दरशायो। शीशनवाय बहुत | पूजाकरि सूरजवंशबढ़ायो ॥ ३०० ॥ समाधान सवहिनको कीन्हों जो दर्शनको आयो। कौशल्या कैकयी सुमित्रा मिलि मनमें सुखपायो । ३०१॥बैठे राम राजसिंहासन जगमें फिरी दुहाई । निर्भय राज रामको कहियत सुर नर मुनि सुख पाई ।। ३०२॥ चार मूर्तिधर दरशन आये चार वेद निज रूप। स्तुति करी बहुत नानाविधि रीझे कोशल भूप ॥३०३ ॥ शिव विरंचि । नारद सनकादिक सब दरशनको आये । रामराज बैठे जब जाने सबहिन मन सुखपाये ॥ ३०४ ॥ लोकपाल अतिही मन हरपे सबसुमनन बरपायो । पुष्पविमान बठि हरि आये लैकुवेर पहुँचायो॥ ॥३०६ ॥ अति आनन्दभयो अवनीपर रामराज सुखदास । कृतयुग धर्म भये त्रेतामें पूरण रमा प्रकास ।। ३०६॥ अश्वमेध बहु यज्ञ किये पुनि पूजे द्विजन अपार । हय गज हेम धेनु पाटम्बर दीन्हेदान उदार ॥३०७ ।। चरित अनेक किये रघुनायक अवधपुरी सुख दीन्हो। जनकसुता बहु लाड लडावत निपट निकट सुख कीन्हो ॥३०८॥ जोन वसंत बहुतद्रुमफूलैं जनकसुता अनुरागे । प्रेमप्रवाह प्रकट प्रकटायो होरी खेलनलागे.॥३०९॥ कबहुँकनिकट देखि वर्षाऋतु झुलत सुरंग हिंडोरे । रमकत झमकत जनकसुता सँग हावभाव चित चोरे ॥३१०॥ कवहुँक कमल सरोवर उपवन जनकसुता सँग लीन्हे । नाना जल विहार विहरतहैं सन्तजनन सुखदीन्हे ॥३११॥ कबहुँक रत्न महल चित्रसारी शरद निशा उजियारी। बैठे जनकसुता सँग विलसत मधुर केलि मनुहारी ॥३१२ ।। कबहुँक अगरधूप नानाविधि लियसुगन्ध सुख कारी । कबहुँक निरतत देवनटीलखि रीझतहैं सुखभारी ॥ ३१३ ॥ राम विहार कहेउ नानाविधि वाल्मीकि मुनिगायो । वर्णत चरित विस्तार कोटिशत तऊ पार नहिं पायो ॥३१४॥ सुर समुद्रको बुन्द भई यह कवि वर्णन कहं करिहै । कहत चरित रघुनाथसरस्वती वौरी मति अनुसरिहै ॥ ३१५ ।। अपने धाम पठाय दिये तव पुरवासी सब लोग । जैजैजै श्रीराम कल्पतरु प्रकट अयोध्याभोग ॥ ३१६॥ दुष्ट नृपति जब बैठे भुवपर धरि भृगुपतिको रूप । क्षणमें भुवको भार उतारयो परशुराम द्विजभूप ॥३१७॥ व्यासरूप द्वै वेद विस्तारे कीन्हें प्रकट पुराणन । नानावाक्य धर्म थापनको तिमिरहरण भुवभारन ॥३१८॥ बुद्धरूप कलिधर्म प्रकाश्यो दया सवनको मूलादूर कियो पाखण्डवाद हरि भक्तनको अनुकूल||३१९॥कलिके आदि अन्त कृतयुगके है कलकी अवतार । मारि मलेच्छ धर्म फिर थाप्यो भयो जग जयजयकार ॥ ३२०॥ कर्मवाद थापनको प्रकटे पृश्नि गर्भ अवतार । सुधापानं दीन्हों सुरगणको भयो जग यश विस्तार ॥३२१॥ असुरनको व्यामोह कियोहरि धरोमोहनीरूपाअमृतपानकराय सुरनको कीन्हें चरितअनूपा॥३२२॥ -