पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६६

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सूरसाग़र-सारावली। . (१३) बकै हरि प्रकटे क्षणमें फिरि प्रकटायो ॥ ३५२ ॥ यह अनेक अवतार कृष्णके को करिसके बखान । सोई सूरदासने वरणे जो कहे व्यास पुराण ॥ ३५३ ।। अंशकला अवतार श्यामके कवि पैकहत न आवै । जहँ जहँ भीर परत भक्तनको तह तहँ वपु धार धावै ॥ ३५४ ॥ मायाकला ईश चतुरानन चतुडूंह धरि रूप । वायु वरुण अरु यम कुवेर शशि मृत्यु आग्नि सुर भूप ॥ ॥३५५ ॥ रवि शशि भृगु मरीचि सुरगुरु अरु चार वेद वपु जान । जगको प्रकट करन परजापति प्रकटे कलानिधान ॥३५६ ॥ जो जो भूपभये भूमण्डल लोकपाल निजजान । निज महिमा हरि प्रकट करी है विधिक वचन प्रमान ॥ ३५७ ॥ सुर अरु असुर रची हरि रचना सो जग प्रगटहि कीन्ही । क्रीडाकरी बहुत नानाविधि निगम बात दृढ़ चीन्ही ॥ ३५८ ॥ यहि विधि होरी खेलत खेलत बहुत भांति सुख पायो। धरि अवतार जगतमें नाना भक्तन चरित दिखायो॥ ॥३५९॥ अंश कला अवतार बहुत विधि राम कृष्ण अवतारी। सदा विहार करत ब्रज मण्डल नंदसदन सुखकारी ॥३६॥ नित्य अखण्ड अनूप अनागत अविगत अनघ अनन्त । जाको आदि कोऊ नहिं जानत कोउ न पावत अन्त ॥ ३६१ ॥ जब हरिलीलाकी सुधि कीन्हीं प्रगट करन विस्तार । श्रीवृपभानु रूप कै प्रकटे पुनि व्रजराज उदार ॥ ३६२ ॥ विद्या ब्रह्म कही यशुमतिसों जाकी कोखि उदार। सोरहकला चन्द्र जो प्रकटे दीन्हों तिमिर विदार ॥ ३६३ ॥ पुनि वसुदेव देवकी कहियत पहिले हरिवर पायो । पूरण भाग्य आय हरि प्रकटे यदुकुल ताप नशायो।। ३६४॥ आठे वुद्ध रोहिणी आई शंख चक्र वपुधारो। कुण्डल लसत किरीट महाध्वनि वपु वसुदेव निहारो ॥ ३६५ ॥ स्तुति करी बहुत नानाविधि रूपचतुर्भुज देख्यो। पीताम्बर अरु श्याम जलद वपु निरखि सफल दिन लेख्यो ॥ ३६६ ॥ तब हरि कहेउ जन्म तुम्हरे गृह तीन बार हम लीनो । पृश्नीगर्भ देव ब्राह्मण जो कृष्णरूप रंग भीनो ॥ ३६७ ॥ माँगो सकल मनोरथ अपने मन वांछित फल पायो । शंख चक्र गदा पद्म चतुर्भुज अजन जन्म लै आयो ॥३६८॥ यह भुवभार उतारन कारन हलधरके सँग लायो । क्रीडा करो लोक पावनकर करो भक्त मन भायो ॥३६९ ॥ प्राकृत रूप धरोहरि क्षणमें शिशुढ रोवन लागे । तब वसुदेव देवकी निरखत परम प्रेम रसपाग॥३७०॥तब देवकी दीन व भाष्यो नृपको नाहिं पतीजै । अहो वसुदेव जाव लै गोकुल कयो हमारो कीजे ॥ ३७१ ॥ तवले हरिपलना पौठाये पीताम्बर जु उढायो। तब वसुदेव शीश धरि पलना भयो सबन मनभायो ॥ ३७२ ।। गोकुल चले प्रेम आतुरकै खुलि गये कपट कपाट । सोये श्वान पहरुआ सोये सवै मुक्तभई बाट ॥ ३७३॥ तव वसुदेव लियो करपलना अपने शीश चढ़ायो । रैन अँधेरी कछु नहिं सूझत अटकर अटकर आयो ।। ३७४ ॥ शेष सहसफण ऊपर छाये धनकी बूंद वचावें । आगे सिंह हुँकारत आवत निर्भय वाट जनावें ॥ ३७५ ॥ यमुना अति जलपूर बहत है चरणकमल परशायो ।मारग दीन्हों राम सिंधु ज्यों नन्दभ वन चलिआयो॥३७६ ॥ पहुँचेआय महर मन्दिर में नेक न शंका कीन्हीं। बालक धरि लेके सुरदेवी सुरति गवनकी कीन्हीं ॥ ३७७॥ लै वसुदेव तुरत घरआये काहू जिय नहिंजाने । जब . वह रोवन लागी तब सब जागपरे अकुलाने ॥ ३७८॥ वालक भयो कह्यो नृपसों जब दौर कंस तव आयो । करगहि खड्ग कह्यो देवकिसों वालक कहँ पहुँचायो ॥ ३७९ ॥ तव देवकी अधीन. काउ यह मैं नहिं पालक जायो। यह कन्या मोहिं वकसवीर तू कीजै मोमन भायो॥ ३८०॥ । कंस वंशको नाश करत है कहा समुझ रिसयानी । मोको भई अनाहद वाणी. ताते डर: नहि -