पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६६०

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दशमस्कन्ध-१० (६६७). अरध नैनन देत ॥ चमर अंचल कुच कलस मनो पाय पाणि चढाइ । प्रगट लीला देखि उनकी । कर्म उठती गाइ ॥ देह गेह सनेह अर्पण कमल लोचन ध्यान । सूर उनको भजन देखत फीको । लागत ज्ञान ॥ ७९ ॥ माधोजू सुनिये ब्रज व्यवहार । मेरो कह्यो पवनको भुसभयो गावत नंद कुमार ॥ एक ग्वालि गोमुतद्वै रेंगति एक लकुट कर लोते । एकग्वालि मंडलीकरि बैठति छाँक वांटिकै देति ॥ एक ग्वालि नटवत बहुलीला एक कर्मगुण गावति । बहुत भाँति करि मैं समु- झाई नैक न उरमें आवति ॥ निशि वासर याही ढंग सब वज दिन दिन नवतनु प्रीति । सूर सकल फीको लागतहै देखत वह रँगरीति ॥ ८० ॥ मलार ॥ वा वूझति यों वहरावति । सुनहु श्यामवै सखी सयानी पावसऋतु राधहि न सुनावति ॥धन गर्जत मनु कहत कुशलमति कुंजत गुहा सिंह समुझावति । नहिं दामिनि दुम दवा शैलचढि फिरि वयारि उलटी झर धावति ॥ नाहिंन मोर वकत पिक दादुर ग्वालमंडली खगन खिलावत । नहि नभ वृष्टि झरना झर ऊपर बूंद उचटि आवत ॥ कबहुँक प्रगट पपीहा बोलत कहि कुवेप करतारि वजावत । सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन विन सो विरहिनि इतनो दुख पावत ॥ ८ ॥ नट ॥ नैकहु काहू सोच न कीन्हों । सुन ब्रजनाथ सबनके अवगुण मिलि मिलिहै दुखदीन्हो ॥ ऋतुवसंत अनसमै अधममति पिकसहाउ लै धावत। प्रीतम संग नजानि युवती रुचि बोलेह बोल न आवतासिदा शरदऋतु सकल कलाले सन्मुख रहत जन्हाइ। सो सितपच्छ कुहू सम वीतत कबहुँ नदेत देखाइ।त्रिविध समीर सुमन सौरभ मिलिमत्त मधुपगुंजार । जोइ जोइ रुचै सु कियो बांधि वल तजि मन सकुच विचार ॥रतिपति अतिअनीति कीवे कोटिधूमध्वजमानोलकर धनुष चितै तुम्हरोमुख अब बोले तव जानौ ॥इहि विधिसबन वीन पायोब्रज काढत बैर दुरासी। सूरदास प्रभु बेगि मिलहु अब पिसुन करत सब हाँसी॥८२॥सारंग। सवते परम मनोहर गोपी। नँदनंदनके नेह मेह जिनि लोक लीक लोपी ॥ वरि कुविजाके रंगहिः राचे तदपि तजी सोपी। तदपि न तजै भने निशि वासर नैकहून कोपी॥ ज्ञानकथा की मथि मन देखो ऊधो बहुधौपी। टेरति घरी छिन नैक नअँखिया श्यामरूप रोपी ॥ जे तिहि तिहि हरिके अवगुणकी ते सबई तोपी । सूरदास प्रभु प्रेम हेम ज्यों अधिक ओप ओपी ॥ ८३ ॥ सारंग ॥ मोमन उनईको भयो। परयो प्रभु उनके प्रेमको समै तुमहूं विसरि गयो । तुमसों सपत करि गयो माधव वेगि कोहो आवन । तिनाह दोखि वैसोई वै गयो लग्यो उनहि मिलि गावन ॥ समुझि परी पटमास वीतते कहां हुतो हों आयो।सूर अनकही दै गोपिनसो श्रवण मदि उठिधायो। ८॥रागगंधार॥उनमें पांचो दिन जो वसिएनाथ तुम्हारी सों जिय उपजत फेरि अपनो यो कसिए। वह विनोदलीला वह रचना देखेही वनिआवै । मोको कहा बहुरि वैसे सुख वडभागी सो पावै । मनसा वचन कर्मना अबहैं कहत नहीं कछु राखी । सूर काढि डारयो ब्रज ते ज्यों दूध मांझते माखी॥८६॥ सोरठ ॥ माधोज़ मैं अतिही सचुपायो। अपनोजानि संदेश साजिकरि ब्रजमिलन पठायो॥ क्षमाकरो तो करों वीनती उनहि देखि जो आयो। सकल निगम सिद्धान्त जन्मकर श्याम उन सहज सुनायो ॥ नहिं श्रुति शेप महेशप्रजापति जो रस गोपिन गायो । कथा गंग लागी.मोहिं तेरी उह रस सिंधुउमहायो । तुम्हरी अकथ कथा तुम जानौ हमैं जिन नाथ विसरायो सूरश्याम सुंदरि इह सुनि सुनि नैनन नीर वहायो८६॥ मलार ॥ जोपै प्रभु करुणाके आलै । तो कत कठिन कठोर होत मन मोहिं बहुत दुखशालै ॥ वहो विरदकी लाज दीन पति कार सुदृष्टि देखो। मोसों बात कहत किन सन्मुख कहा अवनि अवलेखो ॥ निगम कहत वशहोत भक्तिते