न । पलकहू भारि दुख न देह राखि है ज्यों प्रान ॥ सब तिहारो कहे करिहैं वचन माथे मानि ॥ परम चतुर सुजान ईते मांझ लीजो जानि । अब न कौनो चूक करिहैं यह हमारे बोल । किंकिारें निकी लाज धरि ब्रज सुवस करहु निटोल ॥ समुझि निज अपराध करनी नारी नावति नीचि बहुत दिनते वरति है कै आंखि दीजै सीचि ॥ मनसि वचन अरु कर्मना, कछु कहति नाहिन राखि । सूरप्रभु यह वोल हृदय सातराजा साखि ॥७१॥ सारंग ॥ कहत नवन ब्रजकी रीति । नाथमम शठ कोप ष्यो भयो देखि उनकी प्रीति । युवति वल्लभ कत कहावत करत सकल अनीतिामोहि तौं यह कठिन औरो क्यों करिहै परतीति । सुनौ धौ दै कान अपनी लोक लोकनि क्रोति । सूर प्रभु
अपनी खचाई रही निगमन जीति ॥७२॥ नट ॥ परम वियोगिनी सब ठाढी । ज्यों जल हीन दीन कुमु दिनि धन रवि प्रकाशकी डाठी।जिहि विधि मीन सलिल ते विठुरे तिहि अति गति अकुलानी । सूखे अधर कहि न आवै कछु वचन रहित मुखवानी । उन्नत श्वास विरह विरहातुर कमवदलन कुम्हि
लानी । निंदतिनैन निमेष छिनहि छिन मिलन कठिन जिय जानी ॥ विनु बुधि वल विचित्र कृत शोभित चलि न सकी पचिहारी।सूरदास प्रभु अवधि गयो नतो प्राण तजत ब्रजनारी ॥७३॥ मारू ॥
सव व्रज-घर घर एकै रीति । ज्यों कुरुखेत गडेको सोनो त्यों प्रभु तुम्हरी प्रीति ॥ वै सव परम-विचित्र सयानी अरु सवही जग प्रीति । उनको ज्ञान सुनतही शठ भयो ज्यों बहु दिनकी भीती ॥ एकै गहन धरी उन हठ करि मेटि वेद विधि नीतिगोपवेष निज सूर श्याम ले रही विश्व वरजीति ॥ ॥७४॥ केदारो ॥ ब्रजजन दुखित अति तनु छीनारटत इक टक चित्र चातक श्याम धन तन लीन ॥ नाहिं पलटत वसन भूषन हगन दीपक तात । मलिन वदन विलखि रहत जिमि तरनि हीन जलजात ॥ कहन जो तुम कहेउ सो रति मति पच्यो करि उपदेश । धरत नलनी बूंद ज्यों जल वचन नहिं परवेश ॥ धरे मुरली मोर चंद्रिका पीतपट वनमाल । रही वह छवि एक अंगनि लंपट श्याम तमाल ॥ दिवस वितवति सकल जन मिलि कथति गुण बलवीर । रैनि उडुपति निरखि तलफति मीन ज्यों जल तीर ॥ हौंहो करुणानाथ बंधो कहेउ ऊधो गहि पाइ । सूर प्रभु अव दरश दै कार लेहु मरती आइ ॥७५॥ सारंग ॥ तयते इन सवहिन सचुपायोजिरते हरि संदेश तुम्हारो सुनत तवारो आयोफूिले व्याल दुरेते प्रगटे पवन पेंट भरि खायोफूिचो यश मूचोको चरणन तेहु ॥ तौ सब विसरायो ॥ निकास कंदराहूते केहरि शिरपर पूंछ हिलायो । गहरते गजराज आइ अंगही
गर्व बढायो ॥ ऊंचे वैसि विहंगम भामै शुक बनराइ कहायो । किलकि किलंकि कुल सहित आफ्नो कोकिल मंगल गायो । अब जिनि गहर करोहो मोहन जो चाहतही ज्यायो । सूर बहुरि है राधाको सव वैरिनिको भायो ॥७६॥ धनाश्री ॥ आजु विरहिनी विरह तुम्हारे कैसो रटतरही । चारि याम निशि तुम्हरोई सुमिरन और न बात कही ॥ वासर कथा कठिन मन करि करि क्रम क्रम व्यथासही । संध्या शशि देखि उठि चली जब अंकन रहत गही ॥ मृगमद मलय कुमकुमा उरनल सरिता सेज वही । ते क्यों शीतल होहिं सूर प्रभु पिय जू विरहंदही ॥७७॥ सारंग ॥ कान्ह तुम्हारी विकल विरहिनी विलपति विरह वियोग । अति आरत न सम्हारत तन मन इकटक लोम गयोग । कतर मिलो लोचन वरषत अति दुखमुखके छवि रोयो । राहु केतु मानौ मीडि विधु आंक छुटावत धोयो । अबला कहा योग मत जानै मन्मथ व्यथावियो । सूरदास क्यों नीर
चुवतहै नीरस वसन निचोयो ॥७८॥ सोरठ ॥ माधोजू सुनो ब्रजको प्रेम । बूझि मैं पटमास देख्यो । गोपिकनको नेम ॥ हृदयते नहिं टरत उनके श्याम नाम सुहेत । अँसुव सलिल प्रवाह उर मना
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सूरसागर।
