पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६५९

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(६६६) न । पलकहू भारि दुख न देह राखि है ज्यों प्रान ॥ सब तिहारो कहे करिहैं वचन माथे मानिः।। परम चतुर सुजान ईते मांझ लीजो जानि। अब न कौनो चूक करिहैं यह हमारे बोल। किंकिारें | निकी लाज धरि ब्रज सुवस करहु निटोल ॥ समुझि निज अपराध करनी नारी नावति नीचि बहुत दिनते वरति है कै आंखि दीजै सीचि ॥ मनसि वचन अरु कर्मना, कछु कहतिः नाहिन राखि । सूरप्रभु यह वोल हृदय सातराजा साखि।।७१॥सारंग। कहत नवन ब्रजकी रीति । नाथमम शठ कोप ष्यो भयो देखि उनकी प्रीति।युवति वल्लभ कत कहावत करत सकल अनीतिामोहि तौं यह कठिन औरो क्यों करिहै परतीति।सुनौ धौ दै कान अपनी लोक लोकनि क्रोति । सूर प्रभु अपनी खचाई रही निगमन जीति॥७२॥नया परम वियोगिनी सब ठाढी । ज्यों जल हीन दीन कुमु दिनि धन रवि प्रकाशकी डाठी।जिहि विधि मीन सलिल ते विठुरे तिहि अति गति अकुलानी।सूखे अधर कहि न आवै कछु वचन रहित मुखवानी । उन्नत श्वास विरह विरहातुर कमवदलन कुम्हि लानी । निंदतिनैन निमेष छिनहि छिन मिलन कठिन जिय जानी ॥ विनु बुधि वल विचित्र कृत शोभित चलि न सकी पचिहारी।सूरदास प्रभु अवधि गयो नतो प्राण तजत ब्रजनारी ॥७३॥ मारू ।। सव व्रज-घर घर एकै रीति । ज्यों कुरुखेत गडेको सोनो त्यों प्रभु तुम्हरी प्रीति ॥ वै सव परम- विचित्र सयानी अरु सवही जग प्रीति । उनको ज्ञान सुनतही शठ भयो ज्यों बहु दिनकी भीती॥: एकै गहन धरी उन हठ करि मेटि वेद विधि नीतिगोपवेष निज सूर श्याम ले रही विश्व वरजीति॥ ॥७॥केदारो॥ ब्रजजन दुखित अति तनु छीनारटत इक टक चित्र चातक श्याम धन तन लीन।। नाहिं पलटत वसन भूषन हगन दीपक तात । मलिन वदन विलखि रहत जिमि तरनि हीन जलजात ॥ कहन जो तुम कहेउ सो रति मति पच्यो करि उपदेश । धरत नलनी बूंद ज्यों जल वचन नहिं परवेश ॥ धरे मुरली मोर चंद्रिका पीतपट वनमाल। रही वह छवि एक अंगनि लंपट | श्याम तमाल ॥ दिवस वितवति सकल जन मिलि कथति गुण बलवीर । रैनि उडुपति निरखि || तलफति मीन ज्यों जल तीर ।। हौंहो करुणानाथ बंधो कहेउ ऊधो गहि पाइ । सूर प्रभु अव दरश... दै कार लेहु मरती आइ ॥ ७९ ॥ सारंग ॥ तयते इन सवहिन सचुपायोजिरते हरि संदेश तुम्हारो सुनत तवारो आयोफूिले व्याल दुरेते प्रगटे पवन पेंट भरि खायोफूिचो यश मूचोको चरणन तेहु ॥ तौ सब विसरायो ॥ निकास कंदराहूते केहरि शिरपर पूंछ हिलायो। गहरते गजराज आइ अंगही गर्व बढायो।।ऊंचे वैसि विहंगम भामै शुक बनराइ कहायो । किलकि किलंकि कुल सहित आफ्नो कोकिल मंगल गायो । अब जिनि गहर करोहो मोहन जो चाहतही ज्यायो । सूर बहुरि है : राधाको सव वैरिनिको भायो ॥ ७६॥ धनाश्री ॥ आजु विरहिनी विरह तुम्हारे कैसो रटतरही। चारि याम निशि तुम्हरोई सुमिरन और न बात कही ॥ वासर कथा कठिन मन करि करि क्रम क्रम व्यथासही । संध्या शशि देखि उठि चली जब अंकन रहत गही ॥ मृगमद मलय कुमकुमा उरनल सरिता सेज वही । ते क्यों शीतल होहिं सूर प्रभु पिय जू विरहंदही ।। ७७॥ सारंग ॥ कान्ह तुम्हारी विकल विरहिनी विलपति विरह वियोग । अति आरत न सम्हारत तन मन इकटक लोम गयोग । कतर मिलो लोचन वरषत अति दुखमुखके छवि रोयो । राहु केतु मानौ मीडि विधु आंक छुटावत धोयो । अबला कहा योग मत जानै मन्मथ व्यथावियो । सूरदास क्यों नीर.. चुवतहै नीरस वसन निचोयो ॥ ७८ ॥ सोरठ ॥ माधोजू सुनो ब्रजको प्रेम । बूझि मैं पटमास देख्यो । गोपिकनको नेम ॥ हृदयते नहिं टरत उनके श्याम नाम सुहेत । अँसुव सलिल : प्रवाह उर मना.