पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६८७

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- सूरसागर। . . . . . ते प्रभु देहु जिवाई।मेरे जिय यह बड़ी लालसा देखों नैनन जोई। दूध पिवाइ हृदयसों लावों पाछे होइ सोहोई। यह सुनि हरि पाताल सिधारे जहां हुते बलिराहाकरिप्रणाम बैठारि सिंहासनाहितकरि धोये पाइ॥ तासों को देवकीके सुत षष्ट कंसजेमारेनेिक मँगाइ देहु ते हमको है वे लोक तुम्हारे।। तहते भानि दिये हरि वालक माता लाड़ लड़ायोपुरदास प्रभु दरश परसकैते वैकुंठ सिधाये॥२८ अध्याय ॥ ८६ ॥ वेदस्तुति वर्णन ॥ विलावल ॥ हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो।हरि चरणाविन्द उरधरो। हरिके रूप रेख नाहं राजा । और हरि सम द्वितिआ न विराजा ॥ अलखरूप हरि कह्यो नजाई। देवन कछ वेद उक्ति बताई ॥ हरिजीके हृदय यह आई। देवन सबन निरूप देखाई॥ तीनलोक हरि करि विस्तार । ज्योति अपनि को कियो उजियार ॥ जैसे कोऊं गेह सँवारादीपक वारि करै उ जिआर।त्यों हरि ज्योति अपनी प्रगटाइ।घट घट में सोई दरशाइ।तीन लोक सरगुण तनु जान्यो। ज्योति स्वरूप आपनो मान्यो॥ इवासा तासु भये श्रुतिचाराकरि.सो स्तुति या परकार ॥ नाथ तुम्हारी ज्योति अभास करत सकल जगमें परकाश।थावर जंगम जहँ लो भयो।ज्योति तुम्हारी चेतन कियो । तुम सब और सबनते. न्यारे । को लाख सके चरित्र तुम्हारे । सो प्रकाश तुम साजे सदा । जीव कर्म कार बंधन वधा ।। सर्वव्यापी तुम सब ठाहर 1. तुमहिं दूर जानत नर नाहर ॥ तुम प्रभु सबके अंतर्यामी । विसरि रह्यो जिव तुमको स्वामी ॥ तुम्हरी लीला अगम अपारायुगप्रमान कीन्हो व्यवहार।।तुम्हरीमाया जगत उपाया।जैसेको तैसे मगलाया। अद्भुत सगुण चरित्र तुम्हारे। जो करिकै भुवभार उतारे ॥ तेहिको समुझि सकत नाहं जोइ । नि गुण रूप लखै क्यों सोइ॥. नरतनु भक्ति तुम्हारे होइ । जीव तनुमें जिव आसरैसोइ । भक्ति करिये. उतरिये पारानमो नमो तुम्हें वारंवार । शुक जैसे वेद स्तुति गाई । तैसेही मैं कहि समुझाई ॥ जो. पद स्तुति सुनै सुनावै । सूर सुज्ञान भक्तिको पावै ॥ २९ ॥ रागविलावल ॥ नमो नमस्ते वारंवार । मदन सुदन गोविंद मुरार ॥ माया मोह लोभ अरु मानः । ए सब त्रयगुण फांस समान काल सदा शरसाधे रहै । क्यों कार नर तुव सुमिरन कहै।।तुम निर्गुण उदय निराकार । सूर अमर हम रहे वचिहार ॥ तुमरो मर्म नजाने सार । नर वपुरो क्यों करै विचार ॥ अरुण असित सित. वपु उनहार। करत जगतमें तुम अवतासो जगको मिथ्या कहिनाइजहां तरे तुमरे गुण गाइ॥ प्रेमभक्ति विनु मुक्ति न होइ । नाथ कृपाकरि दीजै सोडाऔर सकल हम देखों जोइ । तुम्हरी कृपा होइ सो होइ ।। इह तनुहै प्रभु जैसे ग्राम । या शब्दादिक विश्राम ॥ अधिष्ठाता तुमही भगवान। जान्यो जगत न तुम स्थान।। तुम श्वासाते पुहुमी नाथ । वासरूप हम लख्यो न वाता।कहा कहि तुम्हरी स्तुति करें । वाणी नमो नमो उच्चजगतपिता तुमहींहो ईशायाते हम विनवत जगदीश।। तुम सम द्वितिया और न आहि । पटतर देहि नाथ हम काहिशुक जैसे वेद स्तुति गाई । तैसेही. मैं कहि समुझाई।सूर कह्यो श्रीमुख उच्चाराकहे सुनै सो तरै भवपार३०॥नारदस्तुति ॥ राग धनाश्री ॥ प्रभु तुअ मर्म समुझि नहिं परयो । जगसिरजत पालत संहारत पुनि क्यों बहुरि करयो ।ज्यों। पानीमें होत बुद्बुदा पुनि तामाहिं समाही।त्योंही सब जग कुटुम्ब तुमते पुनि तुम माहिं विलाही॥ माया जलधि अगाध महाप्रभु तरि नसकै तेहि कोई । नाम जहाज चढ़े ज्यों कोई तुवपद पहुंचे सोई ॥ पापी तरयो तरयो सवही सम प्रभुजी नाही तासु निवाही । काठ उतारत बारिवोहिमें । नाम तुम्हारो ताही ॥ पारस परसि होत ज्यों कंचन लोहपना मिटिजाई । त्यों अज्ञानी ज्ञानहि पावत नाम तुम्हारे गाई ॥ अमरहोत ज्यों संशयनाशे रहत सदा सुखपाइ । यातहोत अधिक सुख -Page:सूरसागर.