पृष्ठ:सूरसागर.djvu/६८६

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दशमस्कन्ध १०-उत्तरार्ध (५९३) भूपति दरशन आये ॥ हरि तेहि सबको आदर कियो। भयो संतुष्ट सवहिनको हियो । तब भूपहि हरिको शिरनाइ । करनलगे स्तुति या भाइ ॥ परमहंस तुम सबके ईश । वचन तुम्हारी श्रुति जगदीश ॥ तुम अच्युत अविगति अविनाशी । परमानंद सदा सुखरासी ॥ तुम तनु धारि हरयो भुवभार । नमो नमो तुम्हें वारंवार ॥ पुनि रानी रानिन आई । द्वपदसुता तब वात चलाई ॥ ज्यों करि भयो तुम्हारो व्याह । कहो सो तिनको मोहिं उत्साह ॥ कह्यो सवन्ह हरि अज अविनाशी । भक्तपछल सब जगत निवासी ॥ ना हमको नहिं सुंदरताइ । भक्त जानिकै सब अपनाइ ॥ व्याह सवनको ज्यों ज्यों भयो ।बहरो तिन्हते वहि त्यों कह्यो।दुपदसुता सुनि मन हरपाई। कह्यो धन्य तुम धनि यदुराई। धन्य सकल पटरानी रानी । जिन वर पायो सारंगपानी॥ धन्य जो हरि गुण अह निशि गावै । सूरदास तिनकी रज पावै ॥२६॥ अध्याय॥ ८४ ॥ ऋषिस्तुति विलावल ॥ हरि हरि हरि सुमिरहु सब कोई । बिनु हरि सुमिरन मुक्ति नहोई ॥ श्री शुक व्यास कहो यह गाई । सोइ अब कहौं सुनो चितलाई ॥ सुरज गहन पर्व हरि जान । कुरुक्षेत्रमें आए न्हान ॥ तहां ऋपि हरि दरशन हित आये। हरि आगे होइलेन सिधाये ॥ आसन दे पूजा हित करी । हाथ जोरि विनती उच्चरी ॥ दरश तुम्हारे देवन दुर्लभ । हमको भयो सो अतिही सुर्लभ ॥ यों कह पुनि लोगन समुझायो। जैसे वेद पुराणन गायो॥ हरि जीकी पूजै हरिजान । ताको होइ तुरत कल्यान ।। गुरु पूजा बहु विधिसों कांजे । तीरथ जाइ दान बहु दीजे ॥ यह सब किये होइ फल जोइ। संत संगसो छिनमें होइ ॥ यह सुनिकै ऋपि रहे लजाइ । पुनि हरिसे बोले या भाइ ॥ तुम सबके गुरु सबके स्वामी। तुम सबहिनके अंतयोमी ॥ तुम्हें वेद ब्राह्मण बखानत । ताते हमरी स्तुति ठगनत ।। हम सेवक तुम जगत उधार । नमो नमो तुम्हें वारंवार ॥ तुम परब्रह्म जगत करतारा । नरतनु धरयो हरनभूभारा ॥ सुरपूजा औ तीर्थ बतावत । लोगनके मतिको भरमावत ॥ तुम रूप हिं यहि भांति छिपायो । काठ माह ज्यों अग्नि दुरायो । वसुदेव तुमको जानत नाहीं। और लोग वपुरे किन माहीं। कोउ न मानत कोउ न जानत । कोऊ शत्रु मित्र कार मानत॥सर्व अशक्ति तुम सर्व अधार । तुम्हें भजे सो उतरै पार ॥ जैसे नींद नाहिं कोइ होय । वहुविधि सपना पावै सोय ॥ पै तेहि वहां नकछू सम्हार । केहि देखत को देखनहार ॥ त्यों जिय रहै विपैरस भोइ । तेहिक शुद्धि बुद्धि नहिं कोइाजापर कृपा तुम्हारी होइ । रूप तुम्हारो जाने सोइ।घट घट मांह तिहारो वास । सर्व और ज्यों दीप प्रकाशाइह विधि तुमको जानै जोइ । भक्तिरु ज्ञानी कहिये सोइ ॥ नाथ कृपा अब हमपर कीजै । भक्ति आपनी हमको दीजै ।। प्रेम भक्ति विन कृपा नहोइ । सर्व शास्त्रमे देखे जोइ ॥ तपसी तुमको तपकरि पावै । सुनि भागवत गृही गुण गावै ॥ कर्मयोग करि सेवत कोई । ज्यों सेवै त्योंही गति होई ॥ ऋपि यहिविधि हरिके गुणगाइ। कह्यो होइ आज्ञा यदुराइ ॥ हरि तिनको पुनि पूजा करी । कीरति सकल जगत विस्तरी । वेद पुराण सवनको सार । व्यास कह्यो भागवत विचार ॥ विनु हरि नाम नहीं उद्धार । वेद पुराण सवनको सार ॥ सूर जानि यह भजो मुरार ॥ २७ ॥ अध्याय ॥ ८५ ॥ श्रीकृष्ण देवकी षट्पुत्र आनयन॥ रागविलावल ॥ श्रीगोपाल तुम कहो सोहोडातुमही कर्ता तुमही हो तुम ते और नकोइ ॥ अवलों मैं तुमको नहिं जान्यों पुत्रभावकरि मान्यो । तुमहो देव सकल देवनके अब तुमको पहिचान्यो । गुरुसुत आनि दिये तुम जैसे कृपाकरी यदुराई । ममसुतहूं जे कंस संहारे ।Category Page:सूरसागर