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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/७

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श्रीसूरदासजीका जीवनचरित्र।

दरशन दियो कृपा करि मोहन नेग दियो वरदान।आगम कल्प रमन तुव ह्रै है श्री मुख कही बखान+॥१००७॥

सूरसागर सारावलीको सूरदास जीने एक लाख पद बनानेके उपरांत बनाया है:-

कर्मयोग पुनि ज्ञान उपासन सबही भ्रम भरमायो। श्रीवल्लभगुरु तत्त्व सुनायो लीला भेद बतायो॥११०२॥तादिन ते हरिलीला गाई एक लक्ष पद वन्द।ताको सार सूरसारावलि गावत अति आनन्द॥११०३॥ तब बोले जगदीश जगतगुरु सुनो सूर मम गाथ। तू कृत मम यश जो गावैगो सदा रहै मम साथ॥११०४॥

सूरदासजीके सवालक्ष पद बनानेकी किम्बदन्ती जो प्रसिद्ध है वह ठीक विदित होती है क्योंकि एकलाख पद तो श्री वल्लभाचार्यके शिष्य होनेके उपरांत और सारावलीके समाप्त होने तक बनाये इसके आगे पीछे के अलगही रहे।।

अब देखना चाहिये कि यह सारावली कब बनी ? इसके अंतमें सूरदास जी लिखतेहैं:-

"सरस समतसर लीला गावै युगल चरण चित लावै । गर्भवास बंदीखानेमें बहुरि सूर नहिं आवै ॥ ११०७॥" मुझे सरस सम्वत्सरका शब्द खटका और इसपर मैंने माननीय महामहोपाध्याय श्रीपंडित सुधाकर द्विवेदीजीसे पूॅंछा इन्होंने बताया कि सरस नहीं यह शब्द परस हो सकता है जिसका अर्थ साठ होता है और पहिले लोग सैकड़ाको छोड़कर प्रायः लिखदिया करते थे इससे संवत् १५६० का अनुमान हुआ,परंतु जो विचारकर देखा तो यह वात सर्वथा असंगत प्रतीत हुई क्योंकि एक तो "सरस सम्बत्सर लीला गावै" से विदित होताहै कि, यह फलस्तुति है सम्भवहै इस लीलाहीका नाम सरस सम्बत्सर लीलाहो,क्योंकि गोवर्धनपूजाके प्रसंगमेंभी सूरदास जीने लिखाहै “श्याम कह्यो सूरदास सों मेरी लीला सरस बनाय" दूसरे यह कि,हम ऊपर दिखला चुकेहैं कि सरसठ वर्षकी अवस्थामें यह ग्रंथ बना तो १५६० मेंसे ६७ निकाल दीजिये तो १४९३ बचताहै जो कि श्रीवल्लभाचार्य महाप्रभुके जन्मके बहुत पहिले आता है और यदि श्रीगोसाई जीके कालमें सूरदासजीकी मृत्यु उनके लेखानुसार मानीजाय तथा सूरदासजीने सम्बत् १६०७ में साहित्यलहरी बनायाहै तबतो सूरदासजीकी अवस्था ११४ वर्षसेभी अधिक हो जातीहै; इससे इसे छोड़कर साहित्यलहरीहीके सम्बतपर ध्यान देना चाहिये॥

साहित्यलहरीमें सूरदासजीने यों सम्बत दियाहैः-

"मुनि पुनि रसनके रस लेष।दशन गौरीनंदको लिखि सुवल सम्बत पेष ॥ नंदनंदन मास छैतें हीन त्रितियावार ।नंदनंदन जनमतेहैं बाणसुख आगार ॥ त्रितिय रिक्ष सुकर्म योग विचारि सूर नवीन। नंदनंदन दासहित साहित्य लहरीकीन ॥१०९॥

मुनि=सात, रसन=एक, रस=छ, दशन गौरीनंद=एक अर्थात् १६०७ (“अंकानां वामतों गतिः")नंदनंदनमास=बैशाख, अक्षय तृतीया कृत्तिकानक्षत्र सुकर्म योगमें साहित्यलहरी बनाया।

साहित्य लहरीको सूरदासजीने सूरसागरसे दृष्टकूट पदोंको छांटकर संग्रह कियाहै अस्तु अब


  • इसको जीवनचरित्रवाले पद "प्रथम ही मथनगात" के इनपदोंसे मिलाइये "सातएं दिन आयं पदुपति कीन आप उधार दियो चखदै कही शिशु मुनु मांगु वर जो चाइ। हौं कही प्रभु भगति चाहत शत्रुनाश सुभाइ ॥ दूसरो ना रूप देखों देखि राधाश्याम। सुनत करुणासिन्धु भाषी एवमस्तु सुधाम।। प्रबल दक्षिण विभकुलते शत्रुह्रै है नास । अमित बुद्धि विचारि विद्यामान मानै मास ॥ नाम राखे मोर सूरजदास सूर सुश्याम । भए अन्तर्धान बीते पाछली निशि याम ॥