पृष्ठ:सूरसागर.djvu/८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सूरसागर-सारावली। ........ . तत्त्व भेद नहिं जानत दंपति अंग सँभार ॥९८० ॥ सुरत सरुद्र मगन दंपति रस, झेलत अतिः । सुखझेल । निधि रमन अपरमित अच्युत मनुज माय बहु खेल ॥ ९८१ ।। नूपुर संचित | किंकिनिकी ध्वनि सुनत मधुर किलकारामदन सिंधु मधुमत्त मधुपगन फूले करत गुंजार ॥९८२ मधुप यूथ मिलि सबन चन्द्रमा तडित लिये आकास । खंजन मीन बजावत गावत निरतत सुख सुविलास ॥९८३ ॥ जलद समूह खसत उडुगण गण पै समुद्रके बीच । मकर कपोल बोल मृदुः कोकिल अमृत सुधारस सींच ॥९८४ ॥ मोहन वेल शृंगार विटपसों उरझी आनंद वेल । कंचनः बेल तमालहि लपटी रसिकरंग भरिरेल ॥ ९८५ ॥ युगल कमलसों मिलत कमल युग युगल कमल ले संग । पांच कमल मध्य युगल कमल लखि मनसा भई अपंग ॥ ९८६॥ किरण कदम्ब मंजुका पूरण सौरभ उडत अवेश । अगर धूप सौरभ नाशा सुख वरपत परम सुदेश.॥९८७.॥ कुंतद कुमुद बंधूक मिलत पुनि मीन देख ललचात । तापर चन्द्र देख संज्ञासुत. तनमें बहुत डेरात ॥ ९८८ ॥ वरना भख करमें अवलोकत केश पास कृतवन्द । अधर समुद्र सदल जो सहसा ध्वनि उपजत सुखफन्द ॥ ९८९ ॥ मुदित मराल मिलत मधुकर सों खंजन मिलत कुरंग । कीर कीर रणधीर मिलत सम रतरस लहर तरंग ॥ ९९०॥सुरत समुद्र || कहत दम्पतिक निर्वधि रमन अपार । भयो शेष मनमूढ कहनको राधा कृष्ण विहार ॥ ९९ ॥ ॥ शोभा अमित अपार अखण्डित आप आत्माराम । पूरण ब्रह्म प्रकट पुरुषोत्तम सवविधि पूरण काम ॥ ९९२ ॥ आदि सनातन एक अनूपम अविगति अल्पअहार । उकार अदिवेद असुरहन: निर्गुण सगुण अपार ॥ ९९३॥ चतुरानन पञ्चानन अरु पुन पटआनन सम जान । सहसाननः । बहुआनन गावत पार न पाय बखान ॥ ९९४ ॥ सधन कुंजमें अमितकेल लख तनु सुगन्धकी रेला मधुकर निकट आय पीवत रस सुखद सदारस झेल ॥ ९९५ ॥ मलिनभये रसमान सरोवर मुनि. । जनमानसहंस । थकित विलोकि शारदा वर्णन करिखें बहुत प्रशंस॥९९६॥ वृंदावन निजधाम परम रुचि वर्णन कियो बढ़ाय । व्यास पुराण सधन कुजनमें जब सनकादिक आय॥९९७॥धीर समीर.. बहत त्यहि कानन बोलत मधुकर मोर । प्रीतम प्रियाबदन अविलोकत उठि उठि मिलत चकोर॥ ॥ ९९८ ॥ अमित एक उपमा अविलोकत नियमें परत विचार । नहिं प्रवेश अजः शिवगणेश पुनि कितकवात संसार ॥ ९९९ ॥ सहस रूप वहुरूप रूप पुनि एकरूप पुनिदोय। कुमुदकली विगशित अम्बुज मिलि मधुकर भागीसोय॥१०००॥नलिन पराग मेघ माधुरि सों मुकुलित अम्ब. कदम्ब । मुनिमन मधुप सदा रस लोभित सेवत अन शिव अम्ब॥३००१॥गुरु प्रसाद होतं यह दरशन सरसठ वरष प्रवीन । शिवविधान तपकरेउ बहुत दिन तऊ पार नहिं लीनं ॥३००२॥सुख. पथ्येक अंक ध्रुव देखियत कुसुम कन्द द्रुम छाये। मधुर माल्लिका कुसमित कुजन दम्पति लगत । सोहाये ॥१००३।। गोवर्द्धन गिरि रत्न सिंहासन दम्पति रस सुखमान । निविड कुज जहँ कोउ न आवत रस विलसत सुखखान ॥१००४॥ निशाभोर कवहूं नहिं जानत प्रेम मत्त अनुराग।। ललितादिक सींचत सुखनैनन जुर सहचरि बडभाग ॥१०.०६॥ यह निकुञ्जको वर्णन करिदे वेद : रहे पचिहार । नेतिनतिकर कहेउ सहस विधि तऊ नपायो पार ॥ १००६॥ दरशन दियो कृपाः | करि मोहन वेग दियो वरदान । आगम कल्परमण तुव है श्रीमुख कहीं बखान ॥१००७॥ सो श्रुतिरूप होय ब्रजमण्डल कीनो रास विहार । नवल कुञ्जमें अंश बाहु धरि कन्हिीं केलि अपार ॥: ॥ १०.०८॥ पुनि ऋषि रूप राम वर पायो हारिसे प्रीतम पाय । चरण प्रसाद राधिका देवी उन ।