पृष्ठ:सूरसागर.djvu/८८

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सूरसागर-सारावली। हरिकंठ लगाय ।। १००९॥ वृन्दावन गोवर्धन कुलन यमुना पुलिन सुदेश । नित प्रति करत विहार मधुररस श्यामा श्याम सुवेश ॥ १०१०॥ निरखि निरखि सुख दम्पतिको यह कविकुल सब पचिहारे । भूपण खसे सुरत वश दोऊ केशन आपु सँवारे ॥ १०११॥ ललिता ललित बजाय रिझावत मधुर वीन कर लीने । जान प्रभात राग पञ्चम पट मालकोस रसभीने ॥१०१२॥ सुर हिंडोल मेघ मालव पुनि सारंग सुर नट जान । सुर सांवत भूपाली ईमन करत कान्हरो गान ॥ ॥१०१३॥ ऊंछ अडानेके सुर सुनियत निपट नायकी लीन । करत विहार मधुर केदारो सकल सुरन सुख दीन ॥ १०१४॥ सोरठ गौडमलार सोहावन भैरव ललित वजायो । मधुर विभास सुनत बेलावल दम्पति अति सुखपायो । १०१६॥ देवगिरी देशाकदेव पुनि गौरी श्री सुखरास। जैतश्री अरु पूर्वी टोडी आसावरि सुखरास ॥ १०१६ ॥ रामकली गुनकली केतकी सुर सुघराई गाये। जैजैवन्ती जगत मोहनी सुरसों वीन वजाये ॥ १०१७ ॥ सूआसरस मिलत प्रीतमसुख सिन्धुवीर रसमान्यो । जान प्रभात प्रभाती गायो भोर भयो दोउ जान्यो ॥१०१८॥ जागे प्रात निपट अलसाने भूपण सब उलटाने । करत श्रृंगार परस्पर दोऊ अति आलस शिथिलाने ॥ ॥१०१९॥ जालरंध्रदै सहचरि देखत जन्म सफल करि लेखे । जान प्रभात उछंगन दम्पति लेत प्राण रसपेखे ॥१०२०॥ औत्यो दूध कपूर मिलायो लै ललिता तहँ आई । पहिले श्यामाको अंचवायो पाछे पिवत कन्हाई ॥ १०२१॥ करि श्रृंगार सघन कुञ्जनमें निशिदिन करत विहार। नीराजन बहुविधि वारतहैं ललितादिक ब्रजनार॥१०२२॥कबहुँक केलि करत यमुना जल सुन्दर शरद तड़ाग। कबहुँक मधुर माधुरी झुलत आनंद आति अनुराग ॥१०२३॥ प्रथम वसन्त पञ्चमी शुभदिन मंगलचार वधाये ।पञ्चानन जारयो मन्मथसो प्रकट भयो फिरि आये।।१०२|यशुमति मात वधाई बाँटत फूली अंग न समाई। उवटि न्हवाय श्यामसुन्दरको आभूषण पहिराई॥१०२६॥ घर घरते आईं व्रज सुन्दरि मंगल साज सँवारे । हेम कलश शिर पर धरि पूरण काम मन्त्र उपचा रे॥१०२६॥अविर गुलाल अरगजा सोधी लीन्हों सौज बनाय । मनमें किये मनोरथ बहु विधि । मिलवत सव मनभाय ॥ १०२७॥ भीर जानि सिंह पौर नियनकी यशुमति भवन दुराई । ढूंढ सकल त्रिय दौरमात को पकर बाँह ले आई॥१०२८॥ केसर चन्दन और अरगजा शीश महर के नाये । जो जो विधि उपजी जाके जिय सोइ सोइ भांति कराये ॥ १०२९ ॥ फगुआ दियो महर मन भायो यशुमति परमउदार । पकर लिये घनश्याम मनोहर भेटे भरि अंकवार ॥ १.३०॥ पहिली जान वसंत पंचमी यशुमति बहुत खिलाये । केसर चोवा और अरगना श्याम अंग लपटा ये॥१०३१॥ तापाछे गोपिनने छिरके कनक कलश भरिडारे । मानो शीश तमाल अमृत घन सरस सुधा निधरारे ॥ १०३२॥ चन्दन चोवा मथत हाथ कर नील जलद तनु अरप्यो । मानो प्रकट करी अपने चित पियको प्राण समरप्यो ॥ १०३३ ॥ किये मनोरथ नाना विधिक मेवा बहु विधि लाई । सो हरिने स्वीकार कियो सब निराखि परम सुखपाई ॥ १०३४ ॥ सुवल सुवाहुतोक श्रीदामा सकल सखा जीर आये । रत्न चौक में खेल मचायो सरस वसन्त वधाये ॥१०३५ ॥ करत परस्पर गोप ग्वाल मिलि क्रीडा अति मन भाई । सुरँग अबीर गुलाल उडावत रह्यो गगन सब छाई ॥ १०३६॥ फगुआ देन कह्यो मनभायो सबै गोपिका फूली । कंठ लंगाय चलीं प्रीतमको अपने गृह अनुकूली ॥१०३७॥ करतआरती विविध भांतिसों यशुमति | ॥ परम सुहाई । सखावृन्द सब चले यमुन तट खेलत कुँवर कन्हाई ॥ १०३८ ॥ वैठे जाय सघन