पृष्ठ:सूरसागर.djvu/९९

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सूरसागर। इत उत अगह गही नहिं जाय ॥ क्षुधित बहुत अघात नाही निगम द्रुमदल खाइ । अष्ट दश घट नीर अचवै तृषा तउ न बुझाइ ॥ छहूं रस हूं धरत आगे वहै गंध सुहाइ। और अहित अभ. क्ष भक्षति गिरा वरणि न जाइ ॥ व्योम धर नद शैल कानन इते चर न अघाइन ढीठ निठुर न डरति काहू त्रिगुण द्वै समुहाइ ॥ हरै न खल बल दनुज. मानव सुरनि शीश. चदाइ । रचि विरंचि मुख भौंह छवीले चलति चितहिं चुराइ ॥ नील खुर जाके अरुन लोचन : श्वेत सींग सुहाइ । दिन चतुर्दश खेत खूदति सु यह कहा समाइ ॥ नारदादि शुकादि मुनि जन थके करत उपाइ । ताहि कहु कैसे कृपानिधि सकत सूर चराइ ॥ २९ ॥ विनती अंग। राग के दारा॥ वन्दों चरण सरोज तुम्हारे। सुन्दर श्याम कमल दल लोचन ललित तृभंगी प्राणपति । प्यारे॥जे पद पद्म सदा शिवके धन सिंधुसुता उरते नहि टारे । जे पद पद्म परशिजल पावन सुरसरि दरश कटत अघ भारे ॥ जे पद पद्म परशि ऋषिपत्नी बलि नृग व्याध पतित बहु तारे। जे पद पद्म रमत वृन्दावन अहि शिर धरि अगणित रिपु मारे ॥ जे पद पद्म परशि | ब्रज भामिनि सर्वस दै सुत सदन विसारे ॥जे पद पद्म रमत पंडव दल दूत भये सब काज सँवारे । सूरदास तेई पद पंकज त्रिविधि ताप दुख हरन हमारे ॥३०॥धनाश्री ॥ हरि जू तुम ते कहा न होई । रंक सुदामा कियो इन्द्र सम पांडव हित कौरव दल खोई ॥ पतित अजामिल दासी कुविना तिनहूंके कलिमल सब धोई । बोलै गूंग पंगु गिरि लंधै अरु आवै अंधाजग जोई॥ बालक मृतक जिवाय दिये द्विज जो आये दरबारे रोई । सूरदास प्रभु इच्छा पूरण श्री गुपाल सुमिरत सब कोई ॥३१॥ राग सोरठ ॥ अबके राखि लेहु भगवान । हम अनाथ बैठे दुम डरिया पारधि साधे वान ॥ जाके डर भाज्यो चाहत है ऊपर ढुक्यो सचान । दुवो भांति दुख भयो आनि. | यह कौन उबारै प्रान ।। सुमिरत ही अहि डस्यो पारधी कर छूटे संधान । सूरदास शर लग्यो सचानहिं जय जय कृपानिधान ॥ ३२॥ राग विहागरा ॥ हृदय की कबहुँ न जरन घटी । विनु गोपाल विथा या तनुकी कैसे जात कटी। अपनी रुचि जितही तित बँचति इन्द्रिय ग्राम गटी। होति तहीं उठि चलति कपट लगि बांधै नयन पटी ॥ झूठो मन झूठी यह काया झूठी आर. भटी। अरु झूठनि के बदन निहारत मारत फिरत लटी ॥ दिन दिन हीन छीन भइ काया दुख जंजाल जटी॥ चिंता गई अरु भूख भुलानी नींद फिरत उचटी॥ मगन भयो माया रस लम्पट' समझत नाहि हटी। तापर मूड़ चढ़ी नाचति है मीचति नीच नटी ॥ खेचत स्वाद वान | पातर ज्यों चातक रटत ठटी । सूर जलधि सिंचै करुणानिधि निज जन जरनि मिटी ॥३३॥ राग केदारा ॥ अबके नाथ मोहिं उधारि। मगनहीं भव अम्बुनिधि में कृपासिंधु सुगार ॥ नीर. अति गंभीर माया लोभ लहरति रंग। लये जाति अगाध जल में गहे ग्राह अनंग ॥ मीन इन्द्रिय अतिहि काटति मोट अप शिर भार । पग न इत उत धरन पावत उरझिं मोह सिवार ॥ काम क्रोध समेत तृष्णा पवन अति झकझोर । नाहिं चितवनदेत तिय सुत नाम नौका ओर। थक्यो. बीच बिहाल विह्वल सुनो करुणा मूल । श्याम भुज गहि काढ़ि लीजै मूर ब्रज के कूल ॥ ३४॥ राग सारंग ॥ माधव जू मन हठि कठिन परयो। यद्यपि विद्यमान सब निरखत दुःख शरीर मरयो॥॥ वारवार निशि दिन अति आतुर फिरत दशो दिशि धाये। ज्यों शुक सेंवर फूल विलोकत जात नहीं | विन खाये॥ युग युग जन्म मरन अरु बिछुरन सब समुझत मतिभेव। ज्यों दिनकर उलूक नहिं मानत परी आनि यह टेवा हौंकुचील मतिहीन सकल विधि तुम कृपालु जगजान। सुर मधुप निशि कमल.|