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सेवासदन
 

दारोगा जी के हल्के में एक महन्त रामदास रहते थे। वह साधुओ की एक गद्दी के महन्त थे। उनके यहा सारा कारोबार 'श्रीवाकेविहारीजी’ के नाम पर होता था। 'श्री बाँकेबिहारी जी’ लेनदेन करते थे और ३२ सैकडे से कम सूद न लेते थे। वही मालगुजारी वसूल करते थे, वही रेहननामे-बैनामे लिखाते थे। 'श्री बांकेबिहारी जी' की रकम दबाने का किसी को साहस न होता था और न अपनी रकम के लिए कोई दूसरा आदमी उनसे कड़ाई कर सकता था ‘श्री बाकेबिहारीजी' को रुष्ट करके उस इलाके में रहना कठिन था। महन्त रामदास के यहा दस बीस मोटे ताजे साधु स्थायी रूप से रहते थे। वह अखाड़े में दण्ड पेलते, भैस का ताजा दूध पीते, सन्ध्या को दूधिया भग छानते और गाजे चरस की चिलम तो कभी ठण्डी न होने पाती थी। ऐसे बलवान जत्थे के विरुद्ध कौन सिर उठाता?

महन्त जी का अधिकारियो में खूब मान था। 'श्रीबांकेबिहारीजी’ उन्हें खूब मोतीचूर के लड्डू और मोहनभोग खिलाते थे। उनके प्रसाद से कौन इनकार कर सकता था? ठाकुर जी ससार में आकर ससार की रीति पर चलते थे।

महन्त जी रामदास जब अपने इलाके की निगरानी करने निकलते तो उनका जुलूस राजसी ठाटबाट के साथ चलता था। सबके आगे हाथी पर ‘श्रीबाकेबिहारीजी' की सवारी होती थी, उसके पीछे पालकी पर महन्त जी चलते थे, उसके बाद साधुओ की सेना घोड़ों पर सवार,राम-नाम के झण्डे लिये अपनी विचित्र शोभा दिखाती थी। ऊँटो पर छोल-दारिया, डेरे शामियाने लदे होते थे, यह दल जिस गांव में जा पहुँँचता था उसकी शामत आ जाती थी।

इस साल महन्त जी तीर्थयात्रा करने गए थे। वहा से आकर उन्होने एक बड़ा यज्ञ किया था। एक महीने तक हवनकुंड जलता रहा, महीनों