पृष्ठ:सेवासदन.djvu/१०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
सेवासदन
१२१
 


सुभद्रा तो पूछने में हर्ज ही क्या है? सोचता हो कि खूब हैरान करके बताऊँगा।

शर्मा-हर्ज क्यों नही है? कही उसने न देखा हो तो समझेगा मुझे चोरी लगाती है।

सुभद्रा—उस कमरे में तो वह गया था? मैंने अपनी आँखों देखा।

शर्मा जी —तो क्या वहाँ तुम्हारा कंगन उठाने गया था? वे बात की बात करती हो। उससे भूलकर भी न पूछना। एक तो वह ले ही न गया होगा, और ले भी गया होगा, तो आज नही कल दे देगा, जल्दी क्या है?

सुभद्रा तुम्हारे जैसा दिल कहाँ से लाऊँ? ढाढ़स तो हो जायगी?

शर्मा-चाहे जो कुछ हो, उससे कदापि न पूछना।

सुभद्रा उस समय तो चुप हो गई लेकिन जब रातको चाचा भतीजे भोजन करने बैठे तो उससे न रहा गया। सदन से बोली—लाला मेरा कंगन नहीं मिलता, छिपा रखा हो तो दे दो, क्यो हैरान करते हो?

सदन के मुख का रंग उड़ गया और कलेजा कांपने लगा। चोरी करके सीनाजोरी करने का ढंग न जानता था। उसके मुँह में कौर था, उसे चबाना भूल गया। इस प्रकार मौन हो गया कि मानों कुछ सुना ही नहीं। शर्माजी ने सुभद्रा की ओर ऐसे आग्नेय नेत्रों से देखा कि उसका रक्त सूख गया। फिर जबान खोलने का साहस न हुआ। फिर सदन ने शीघ्रतापूर्वक दो चार ग्रास खाये और चौके से उठ गया।

शर्मा जी बोले, यह तुम्हारी क्या आदत है कि मैं जिस काम को मना करता हूँ वह अदबदा के करती हो।

सुभद्रा तुमने उसकी सूरत नहीं देखी? वही ले गया है, अगर झूठ निकल जाय तो जो चोर की सजा वह मेरी।

शर्मा—यह सामुद्रिक विद्या कब से सीखी?

सुभद्रा-—उसकी सूरत से साफ मालूम होता था।

शर्मा अच्छा मान लिया वही ले गया हो तो? कंगन की क्या हस्ती है मेरा तो यह शरीर ही उसी का पाला है। वह अगर मेरी जान माँगे तो