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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/१०७

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सेवासदन
 


भाव से उनके गले लिपटकर बोले, भाई साहब तुम धन्य हो! इस समय तुमने वह काम किया है कि जी चाहता है, तुम्हारे पैरो पर गिरकर रोऊँ। तुमने हिन्दू जाति की लाज रख ली और सारे लखपतियो के मुँह में कालिख लगा दी। लेकिन इतना भारी बोझ कैसे सभालोगे?

शर्मा—सब हो जायगा, ईश्वर कोई-न-कोई राह अवश्य निकालेंगे ही।

विट्ठल-आजकल आमदनी अच्छी हो रही है क्या?

शर्मा-आमदनी नहीं पत्थर हो रही है, घोड़ागाड़ी बेच दूँगा, ३०) की बचत यो हो जायगी, बिजली का खर्च तोड़ दूँगा १०) यों निकल आवेंगे, १०) और इधर-उधर से खीच खाँचकर निकाल लूँगा।

विट्ठल-तुम्हारे ऊपर अकेले इतना बोझ डालते हुए मुझे कष्ट होता है, पर क्या करूँ, शहर के बड़े आदमियों से हारा हुआ हूँ। गाड़ी बेच दोगे तो कचहरी कैसे जाओगे? रोज किराये की गाड़ी करनी पड़ेगी।

शर्मा- जी नही, किराये की गाड़ी की जरूरत न पड़ेगी! मेरे भतीजे ने एक सब्ज घोड़ा ले रक्खा है, उसी पर बैठकर चला जाया करूँगा।

विट्ठल-अरे वही तो नही है, जो कभी-कभी शाम को चौक में घूमने निकला करता है?

शर्मा-संभव है वही हो।

विट्ठल-सूरत आपसे बहुत मिलती है, धारीदार सर्ज का कोट पहनता है, खूब हृष्ट-पुष्ट है, गोरा रंग, बड़ी बड़ी आँखे कसरती जवान है।

शर्मा-जी हाँ, हुलिया तो आप ठीक बताते है। वही है।

विट्ठल—आप उसे बाजार में घूमने से रोकते क्यों नहीं?

शर्मा—मुझे क्या मालूम कहाँ घूमने जाता है। संभव है कभी-कभी बाजार की तरफ चला जाता हो, लेकिन लड़का सच्चरित्र है-इसलिये मैने कभी चिन्ता नहीं की।

विट्ठल-यह आपसे बड़ी भूल हुई। पहले वह चाहे जितना सच्चरित्र हो, लेकिन आजकल उसके रंग अच्छे नही है; मैंने उसे एकबार नहीं,