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सेवासदन
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महीने में फिर निकल आवेंगे। जरा सी बात के लिये आप इतनी हाय-हाय मचा रहे है।

अबुल-सुमन जलाओ मत, नहीं तो मेरी जबान से भी कुछ निकल जायगा। मैं इस वक्त आपे में नहीं हूँ।

सुमन-नारायण, नारायण, जरासी दाढ़ीपर इतना जामे के बाहर हो गये। मान लीजिये मैंने जानकर ही दाढ़ी जला दी तो? आप मेरी आत्मा को, मेरे धर्म को, हृदय को रोज जलाते है, क्या उनका मूल्य आपकी दाढ़ी से भी कम है? मियाँ, आशिक बनना मुँह का नेवाला नहीं है। जाइये अपने घर की राह लीजिये, अब कभी यहाँ न आइयेगा मुझे ऐसे छिछोरे आदमियों की जरूरत नही है।

अबुलवाफा ने क्रोध से सुमन की ओर देखा, तब जेब से रुमाल निकाला और जली हुई दाढ़ी को उसकी आढ़ में छिपा कर चुपके से चले गये। यह वही मनुष्य है, जिसे खुले बाजार एक वेश्या के साथ आमोद प्रमोद में लज्जा नहीं आती थी।

अब सदन के आने का समय हुआ। सुमन आज मिलने के लिये बहुत उत्कंठित थी। आज वह अन्तिम मिलाप होगा। आज यह प्रेभाभिनय समाप्त हो जायगा। वह मोहिनी मूर्ति फिर देखने को न मिलेगी। उसके दर्शनों को नेत्र तरस-तरस रहेंगे। वह सरल प्रेम से भरी हुई मधुर बातें सुनने में न आवेगी। जीवन फिर प्रेम विहीन और नीरस हो जायगा। कुलुषित ही पर यह सच्चा था। भगवान्! मुझे यह वियोग सहने की शक्ति दीजिये। नहीं, इस समय सदन न आवे तो अच्छा है, उससे न मिलने में ही कल्याण है; कौन जाने उसके सामने मेरा संकल्प स्थिर रह सकेगा या नहीं, पर वह आ जाता तो एक बार दिल खोलकर उससे बातें कर लेती उसे इस कपट सागर मे डूबने से बचाने की चेष्टा करती।

इतने में सुमन ने विट्ठलदास को एक किराये की गाड़ी में से उतरते देखा। उसका हृदय वेग से धड़कने लगा।