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सेवासदन
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को उनका कठोर नाद अप्रिय लगता था। विट्ठलदास को इसकी चिन्ता न थी।

पद्मसिंह धनी मनुष्य थे। उन्होंने बड़े उत्साह से वेश्याओं को शहर मुख्य स्थानों से निकालने के लिए आन्दोलन करना शुरू किया। म्युनिसिपैलिटी के अधिकारियों में दो चार सज्जन विट्ठलदास भक्त भी थे। किन्तु वे इस प्रस्ताव को कार्य रूप में लाने के लिए यथेष्ट साहस न रखते थे। समस्या इतनी जटिल थी कि उसकी कल्पना ही लोगों को भयभीत कर देती थी। वे सोचते थे कि इस प्रस्ताव को उठाने से न मालूम शहर में क्या हलचल मचे शहरके कितने ही रईस, कितने ही राज्यपदाधिकारी, कितने ही सौदागर इस प्रेम मंण्डी से सम्बन्ध रखते थे। कोई ग्राहक था, कोई पारखी, उन सबसे बैर मोल लेने का कौन साहस करता? म्युनिसिपैलिटीके अधिकारी उनके हाथों में कठपुतली के समान थे।


पद्मसिंहने मेम्बरो से मिलमिलाकर उनका ध्यान इस प्रस्ताव की ओर आकर्षित किया। प्रभाकरराव की तीव्र लेखनी ने उनकी बडी सहायता की। पैम्फलेट निकाले गये और जनताको जागृत करनेके लिए व्याख्यानों का कम बाँधा गया। रमेशदत्त और पद्मसिंह इस विषय में निपुण थे। इसका भार उन्होंने अपने सिर ले लिया। अब आन्दोलन ने एक नियमित रूप धारण किया।

पद्मसिंह ने यह प्रस्ताव उठा तो दिया, लेकिन वह इसपर जितना ही विचार करते थे, उतने ही अन्धकार में पड़ जाते थे। उन्हे यह विश्वास न होता था कि वेश्कयाओं निवसनसे आशातीत उपकार हो सकेगा। संभव है, उपकारके बदले अपकार हो। बुराइयो का मुख्य उपचार मनुष्य का सट्ठन है। इसके बिना कोई उपाय सफल नही हो सकता ।कभी-कभी वह सोचते-सोचते हताश हो जाते। लेकिन इस पक्ष के एक सभ्य बनकर वे आप सन्देह रखते हुए भी दूसरो पर इसे प्रकट न करते थे। जनताके सामने तो उन्हें सुधारक बनते हुए सकोच न होता था, लेकिन अपने मित्रों और सज्ज नोके सामने वह दृह न रह सकते। उनके सामने आना शर्माजी के लिए