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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/१४

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सेवासदन
११
 

कृष्ण-—इसमें से एक कौड़ी भी न मिलेगी । मैं अपनी आत्मा बेच रहा हूँ,कुछ लूट नही रहा हूँ।

मुख्तार—आपकी जैसी मरजी, पर मेरा हक मारा जाता है।

कृष्ण--मेरे साथ घर तक चलना पड़ेगा।

तुरन्त बहुली तैयार हुई और दोनों आदमी उस पर बैठ कर चले । बहली के आगे-पीछे,चौकीदारों का दल था। कृष्णचन्द्र उड़कर घर पहुंचना चाहते थे । गाड़ीवान को बार बार हांकने के लिए कह कर कहते कहते, अरे क्या सो रहा है ? हाके चल ।

११ बजते-बजते लोग घर पहुंचे । दारोगा जी मुख्तार को लिए हुए अपने कमरे में गये और किवाड़ बन्द कर दिये । मुख्तार ने थैली निकाली । कुछ दिुन्नियां थी, कुछ नोट और नगद रुपये । कृष्णचन्द्र ने झट थैली ले ली और बिना देखे सुने उसे अपने सन्दूक में डाल कर ताला लगा दिया।

गंगाजली अभी तक उनकी राह देख रही थी। कृष्णचन्द्र मुख्तार को बिदा करके घर में गये । गंगाजली ने पूछा, इतनी देर क्यों की ?

कृष्ण-—काम ही ऐसा आ पड़ा और दूर भी बहुत है।

भोजन कर के दारोगा जी लेटे, पर नींद न आती थी । स्त्री से रुपये की बात कहते उन्हे संकोच हो रहा था । गंगाजली को भी नीद न आती थी । वह बार-बार पति के मुंह की ओर देखती, मानों पूछ रही थी कि बचे या डूबे।

अन्त में कृष्णचन्द्र बोले- यदि तुम नदी के किनारे खड़ी हो और पीछे से एक शेर तुम्हारे ऊपर झपटे तो क्या करोगी ?

गंगाजली इस प्रश्न का अभिप्राय समझ गई । बोली, नदी में चली जाऊँगी।

कृष्ण-चाहे डूब ही जाओ ?

गंगा –हाँ डूब जाना शेर के मुह पड़ने से अच्छा है ।

कृष्ण—अच्छा, यदि तुम्हारे घर में आग लगी हो और दरवाजे से