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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/१५

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सेवासदन
 


निकलने का रास्ता न हो तो क्या करोगी?

गंगा-छत पर चढ़ जाऊँगी और नीचे कूद पड़ूगी।

कृष्ण-इन प्रश्नों का मतलब तुम्हारी समझ में आया?

गंगाजली ने दीनभाव से पति की ओर देख कर कहा, तब क्या ऐसी बेसमझ हूँ?

कृष्ण-मै कूद पडा़ हूँ। बचूगा या डूब जाऊँगा, यह मालूम नहीं।


पण्डित कृष्णचन्द्र रिश्वत लेकर उसे छिपाने के साधन न जानते थे। इस विषय में अभी नोसिखुए थे। उन्हें मालूम न था कि हराम का माल अकेले मुश्किल से पचता है। मुख्तार ने अपने मन मे कहा, हमी ने सब कुछ किया और हमी से यह चाल! हमे क्या पडी़ थी कि इस झगड़े में पड़ते और रात दिन बैठे तुम्हारी खुशामद करते। महन्त फसते या बचते, मेरी बला से, मुझे तो अपने साथ न ले जाते। तुम खुश होते या नाराज, मेरी बला से, मेरा क्या बिगाड़ते? मैने जो इतनी दौड़-धूप की, वह कुछ आशा ही रख कर की थी।

वह दारोगा जी के पास से उठ कर सीधे थाने में आया और बातो ही बातों में सारा भण्डा फोड़ गया।

थाने के अमलो ने कहा, वाह हमसे यह चाल! हमसे छिपा-छिपा कर यह रकम उडा़ई जाती है। मानो हम सरकार के नौकर ही नही है। देखें यह माल कैसे हजम होता है। यदि इस वगुला भगत को मजा न चखा दिया तो देखना।

कृष्णचन्द्र तो विवाह की तैयारियों में मग्न थे। वर सुन्दर, सुशील सुशिक्षित था। कुछ ऊँचा और धनी। दोनों ओर से लिखा-पढी हो रही थी। उधर हाकिमो के पास गुप्त चिट्ठियाँ पहुँच रही थी। उनमें सारी घटना ऐसी सफाई से बयान की गयी थी, आक्षेपो के ऐसे सबल प्रमाण दिये गए थे, व्यवस्या की ऐसी उत्तम विवेचना की गई थी कि