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१५६ सेवासदन

मदनसिंह निरुतर से हो गये थे। मुंशी बैजनाथ के इस कथन से खिल उठे। उनकी ओर कृतज्ञता से देखकर वोले, हाँ और क्या होगा? बसन्त में मलार गानेवाले को कौन अच्छा कहेगा? कुसमय की कोई बात अच्छी नहीं होती। इसी से तो मैं कहता हूँ कि आप सबेरे चले जाइये और दोनों डेरे ठीक कर आइये।

पद्मसिंह ने सोचा, यह लोग तो अपने मन की करेगे ही, पर देखूँ किन युक्तियों से अपना पक्ष सिद्ध करते है। भैया को मुंशी बैजनाथ पर अधिक विश्वास है, इस बात से भी उन्हें बहुत दुख हुआ। अतएव वह नि:संकोच होकर बोले, तो यह कैसे मान लिया जाय कि विवाह आनन्दोत्सव ही का समय है? मैं तो समझता हूँ, दान और उपकार के लिए इससे उत्तम और कोई अवसर न होगा। विवाह एक धार्मिक व्रत है, एक आत्मिक प्रतिज्ञा है, जब हम गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते है, जब हमारे पैरो में धर्म की बेड़ी पड़ती है, जब हम सांसारिक कर्तव्य के सामने अपने सिर को झुका देते है, जब जीवन का भार और उसकी चिन्ताएँ हमारे सिरपर पड़ती है, तो ऐसे पवित्र संस्कार के अवसर पर हमको गाम्भीर्य से काम लेना चाहिए। यह कितनी निर्दयता है कि जिस समय हमारा आत्मीय युवक ऐसा कठिन व्रत धारण कर रहा हो उस समय हम आनन्दोत्सव मनाने बैठे। वह इस गुरुतर भार से दवा जाता हो और हम नाच-रंग में मस्त हो। अगर दुर्भाग्य से आज-कल यह उल्टी प्रथा चल पड़ी है तो क्या यह आवश्यक है कि हम भी उसी लकीपर चलें? शिक्षा का कम से कम इतना प्रभाव तो होना चाहिए कि धार्मिक विषयो में हम मूर्खों की प्रसन्नता को प्रधान न समझे।

मदनसिंह फिर चिन्तासागर में डूबे। पद्मसिंह का कथन उन्हें सर्वथा-सत्य प्रतीत होता था, पर रिवाज के मामले न्याय, सत्य और सिद्वान्त सभी को सिर झुकाना पडता है। उन्हें संशय था कि मुन्शी बैजनाथ अब कुछ उत्तर न दे सकेंगे। लेकिन मुन्शीजी अभी हार नहीं मानना चाहते थे। वह बोले, भैया, तुम वकील हो, तुमसे बहस करने की लियाकत हममे कहाँ है? लेकिन जो बात सनातन से होती चली आई है, चाहे वह उचित हो