या अनुचित उसके मिटाने से बदनामी अवश्य होती है। आखिर हमारे 'पूर्वज निरे जाहिल-जघाट तो थे नहीं, उन्होंने कुछ समझकर ही तो इस रस्म का प्रचार किया होगा।
मदनसिंह को यह युक्ति न सूझी थी। बहुत प्रसन्न हुए। बैजनाथ की ओर सम्मानपूर्ण भाव से देख कर बोले, अवश्य। उन्होने जो प्रथाएँ चलाई है, उन सबमें कोई न कोई बात छिपी रहती है, चाहे वह आजकल हमारी समझ में न आवे। आजकल के नये विचारवाले लोग उन प्रथाओं के मिटाने में ही अपना गौरव समझते हैं। अपने सामने उन्हें कुछ समझते ही नहीं। वह यह नही देखते कि हमारे पास जो विद्या, ज्ञानविचार और आचरण है, वह सब उन्ही पूर्वजों की कमाई है। कोई कहता है, यज्ञोपवीत से क्या लाभ? कोई शिखा की जड़ काटने पर तुला हुआ है, कोई इसी धुन में है कि शूद्र और चाण्डाल सब क्षत्रिय हो जायें, कोई विधवाओं के विवाह का राग अलापता फिरता है और तो और कुछ ऐसे महाशय भी है जो जाति और वर्णकों भी मिटा देना चाहते हैं। तो भाई यह सब बातें हमारे मान की नहीं है। जो जिन्दा रहा तो देखूंगा कि यूरोप का पौधा यहाँ कैसे कैसे फल लाता है? हमारे पूर्वजों ने खेती को सबसे उत्तम कहा है, लेकिन आजकल यूरोप की देखा देखी लोग मिल और मशीनों के पीछे पड़े हुए है। मगर देख लेना, ऐसा कोई समय आवेगा कि यूरोपवाले स्वयं चेतेगें और मिलो को खोद खोदकर खेत बनावेंगे। स्वाधीन कृषक सामने मिलके मजदूरों की क्या हस्ती। वह भी कोई देश है, जहाँ चाह से खाने की वस्तुएँ आवे तो लोग भूखों मरे। जिन देशो में जीवन ऐसे उलटे नियमों पर चलाया जाता है, वह हमारे लिए आदर्श नहीं बन सकते। शिल्प और कलाकौशल का यह महल उसी समय तक है जब तक संसार में निर्बल असमर्थ जातियाँ वर्तमान है। उनके गले सस्ता माल महकर यूरोप वाले चैन करते है। पर ज्योंही ये जातियाँ चौकेगी, यूरोप की प्रभुता नष्ट हो जायगी। हम यह नहीं कहते कि यूरोपवालों से कुछ मत सीखो। नहीं, वह आज संसार के स्वामी है और