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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/१४७

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सेवासदन
 


उमानाथ ने विस्मित होकर गजानन्द की ओर देखा तब लज्जा से उनका सिर झुक गया। एक क्षण के बाद उन्होंने फिर पूछा, यह कैसे हुआ, कुछ बात समझ में नहीं आती?

गजानन्द—उसी प्रकार जैसे संसार में प्राय हुआ करता है। मेरी असज्जनता और निर्दयता, सुमन की चंचलता और विलास लालसा दोनों ने मिलकर हम दोनों का, सर्वनाश कर दिया। मैं अब उस समय की बातों को सोचता हूँ तो ऐसा मालूम होता है कि एक बड़े घर की बेटी से व्याह करने में मैंने बड़ी भूल की और इससे बड़ी भूल यह थी कि व्याह हो जाने पर उसका उचित आदर सम्मान नहीं किया। निर्धन था, इसलिए आवश्यक था कि मैं धन के अभाव को अपने प्रेम और भक्ति से पूरा करता। मैंने इसके विपरीत उससे निर्दयता का व्यवहार किया। उसे वस्त्र और भोजन का कष्ट दिया। वह चौका बरतन, चक्की चूल्हे में निपुण नहीं थी और न हो सकती थी, पर उससे यह सब काम लेता था और जरा भी देर हो जाती तो बिगड़ता था। अब मुझे मालूम होता है कि मैं ही उसके घर से निकलने का कारण हुआ, मैं उसकी सुन्दरता का मान न कर सका, इसलिए सुमन का भी मुझसे प्रेम नहीं हो सका। लेकिन वह मुझपर भक्ति अवश्य करती थी। पर उस समय में अन्धा हो रहा था। कंगाल मनुष्य धन पाकर जिस प्रकार फूल उठता है उसी तरह सुन्दर स्त्री पाकर वह संशय और भ्रम में आसक्त हो जाता है। मेरा भी यही हाल था। मुझे सुमन पर अविश्वास रहा करता था। और प्रत्यक्ष इस बात को न कहकर में अपने कठोर व्यवहार से उसके चित्त को दुखी किया करता था। महाशय, मैंने उसके साथ जो-जो अत्याचार किये उन्हें स्मरण करके आज मुझे अपनी क्रूरतापर इतना दु:ख होता कि जी चाहता है कि विष खा लूँ। उसी अत्याचार का अब प्रायश्चित कर रहा हूँ। उसके चले जानेके बाद दो-चार दिन तक तो मुझपर नशा रहा, पर जब नशा ठंडा हुआ तो मुझे बह घर काटने लगा। में फिर उस घर में न गया। एक मन्दिर में पुजारी बन गया। अपने हाथ से भोजन बनाने के कष्ट से बचा मन्दिर में दो बार सज्जन नित्य ही आ जाते है। उनके साथ रामायण आदिcatagory:हिन्दी