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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/१५४

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सेवासदन
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है। इस विचार से वह मुझसे बड़े पातकी है। ऐसे बगुला भक्तों के सामने में दीन बनकर नहीं जा सकता। मैं उनके साथ बैठता हूँ जो इस अवस्था में भी मेरा आदर करते है, जो अपने को मुझसे श्रेष्ठ नहीं समझते, जो कौए होकर हंस बनने की चेष्टा नहीं करते! अगर मेरे इस व्यवहार से तुम्हारी इज्जत में बट्टा लगता है तो में जबरदस्ती तुम्हारे घर नहीं रहना चाहता।

उमानाथ—मेरा ईश्वर साक्षी है, मैंने इस नीयत से उन आदमियों को आपके साथ बैठने से नही मना किया था। आप जानते है कि मेरा सरकारी अधिकारियों से प्रायः संसर्ग रहता है, आपके इस व्यवहार से मुझे उनके सामने आँखे नीची करनी पड़ती है।

कृष्ण—तो तुम उन अधिकारियों से कह दो कि कृष्णचन्द्र कितना ही गया गुजरा है तो भी उनसे अच्छा है। मैं भी कभी अधिकारी रहा। और अधिकारियों के आचार व्यवहार का कुछ ज्ञान रखता हूँ। वे सब चोर है। कमीने, चोर, पापी और अधमियों का उपदेश कृष्णचन्द्र नहीं लेना चाहता।

उमानाथ—आपको अधिकारियों की कोई परवाह न हो, लेकिन मेरी तो जीविका उन्ही की कृपादृष्टि पर निर्भर है। मैं उनकी कैसे उपेक्षा कर सकता हूँ? आपन तो थानेदारी की है। क्या आप नहीं जानते कि यहाँ का थानेदार आपकी निगरानी करता है? वह आपको दुर्जनों के संग देखेगा तो अवश्य इसकी रिपोर्ट करेगा और आपके साथ मेरा भी सर्वनाश हो जायगा। ये लोग किसके मित्र होते है?

कृष्ण—यहाँ का थानेदार कौन है?

उमानाथ—यद मसऊद आलम।

कृष्ण—अच्छा, वही, सारे जमाने का बेईमान, छटा हुआ बदमाश वह मेरे सामने हेड कान्स्टेबिल रह चुका है और एक बार मैंने ही उसे जेल से बचाया था। अबकी उसे यहां आने दो, ऐसी खबर लूँ कि वह भी याद करे।

उमानाथ—अगर आपको यह उपद्रव करना है तो कृपा करके मुझे अपने साथ न समेटिये। आपका तो कुछ न बिगड़ेगा, मैं पिस जाऊँगा।