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सेवासदन
१३
 


हाकिमों के मन में सन्देह उत्पन्न हो गया। उन्होने गुप्त रीति से तहकीकात की। संदेह जाता रहा। सारा रहस्य खुल गया।

एक महीना बीत चुका था। कल तिलक जाने की साइत थी। दारोगा जी संध्या समय थाने में मसनद लगाये बैठे थे, उस समय सामने से सुपरिन्टेन्डेन्ट पुलिस आता हुआ दिखाई दिया। उसके पीछे दो थानेदार और कई कान्सटेबल चल आ रहे थे। कृष्णचन्द्र उन्हें देखते ही घबरा कर उठे कि एक थानेदार ने बढ़ कर उन्हें गिरफ्तारी का वारण्ट दिखाया। कृष्णचन्द्र का मुख पीला पड़ गया। वह जड़मूर्ति की भाति चुपचाप खड़े हो गए और सिर झुका लिया। उनके चेहरे पर भय न था, लज्जा थी। यह वही दोनो थानेदार थे, जिनके सामने वह अभिमान से सिर उठा कर चलते थे, जिन्हे वह नीच समझते थे। पर आज उन्ही के सामने वह सिर नीचा किये खडे़ थे। जन्म भर की नेक-नामी एक क्षण मे धूल में मिल गयी। थाने के अमलो ने मन में कहा, और अकेले-अकेले रिश्वत उडाओ।

सुपरिन्टेन्डेन्ट ने कहा,-वेल किशनचन्द्र, तुम अपने बारे में कुछ कहना चाहता है?

कृष्णचन्द्र ने सोचा--क्या कहूँ? क्या कह दूं कि मै बिल्कुल निरपराध हूँ, यह सब मेरे शत्रुओ की शरारत है, थानेवालो ने मेरी ईमानदारी से तंग आकर मुझे यहाँ से निकालने के लिए यह चाल खेली है?

पर वह पापाभिनय में ऐसे सिद्धहस्त न थे। उनकी आत्मा स्वयं अपने अपराध के बोझ से दबी जा रही थी। वह अपनी ही दृष्टि में गिर गए थे।

जिस प्रकार बिरले ही दुराचारियों को अपने कुकर्मों का दण्ड मिलता है उसी प्रकार सज्जन का दंड पाना अनिवार्य है। उसका चेहरा, उसकी ऑखें, उसके आकार-प्रकार, सब जिह्वा बन-बन कर उसके प्रतिकूल साक्षी देते है। उसकी आत्मा स्वयं अपना न्यायाधीश बन जाती है। सीधे मार्ग पर चलने वाला मनुष्य पेचीदा गलियो में पड़ जाने पर अवश्य राह भूल जाता है।