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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/१७८

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सेवासदन
२०३
 


एक किराये की गाड़ी की। डाक्टर साहब के यह पैदल जाना फैशन के विरुद्ध था। रास्ते में विट्ठलदास ने आज के सारे समाचार बढाबढ़ाकर बयान किये अगर अपनी चतुराईको खूब दर्शाया।

पद्मसिंहने यह सुनकर चिन्तित भाव से कहा, तो अब हमको और सतर्क होने की जरूरत है। अन्त में आश्रम का सारा भार उन्ही लोगों पर पड़ेगा। बलभद्रदास अभी चाहे चुप रह जायें लेकिन इसकी कसर कभी न कभी निकालेगे अवश्य।

विट्ठल---मैं क्या करूँ? मुझसे यह अत्याचार देखकर रहा नहीं जाता। शरीर में एक ज्वाला-सी उठने लगती है। कहने को ये लोग विद्वान्बु द्धिमान है, नीतिपरायण है, पर उनके ऐसे कर्म? अगर मुझमे कौशल से काम लेने की सामर्थ्य होती तो कमसे कम बलभद्रदास से लड़ने की नौबत न आती।

पद्म---यह तो एक दिन होना ही था। यह भी मेरे ही कर्मो का फल है। देखूँ, अभी और क्या-क्या गुल खिलते है? जब से बारात वापस आई है मेरी विचित्र दशा हो गई है। न भूख है, न प्यास, रातभर करवटे बदला करता हूँ। यही चिन्ता लगी रहती है कि उस अभागिन कन्या का बेड़ा कैसे पार लगेगा। अगर कहीं आश्रम का भार सिरपर पड़ा तो जान ही पर बन जायगी। ऐसे अथाह दलदल में फंस गया हूँ कि ज्यों-ज्यों ऊपर उठना चाहता हूँ और नीचे दबा जाता हूँ।

यही बात करते-करते डाक्टर साहब का बँगला आ गया। १० बजे थे। डाक्टर साहब अपने सुसज्जित कमरे मे बैठे हुए अपनी बड़ी लड़की मिस कांतिसे शतरंज खेल रहे थे। मेज पर दो टेरियर कुत्ते बैठे हुए बड़े ध्यान से शतरंज की चालो को देख रहे थे। और कभी-कभी जब उनकी समझ में खिलाड़ियो से कोई भूल हो जाती थी तो पजो से मोहरो को उलट पटल देते थे। मिस कांति उनकी इस शरारतपर हँसकर अंग्रेजी में कहती थीं, ‘यू नाटी!'