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सेवासदन
 


सिर यह अजीमुश्शान जिम्मेदारी पड़ती है उसका दिल जानता है।

११ बज गये थे। श्यामाचरण ने पद्यसिंंह से कहा, मेरे भोजन का समय आ गया, अब जाता हूँँ। आप सन्ध्या समय मुझसे मिलियेगा।


पद्मसिंहने कहा, हाँ, हाँ, शौक से जाइये। उन्होने सोचा जब ये भोजन में जरासी देर हो जाने से इतने घबराते है तो दूसरो से क्या आशा की जाय? लोग जाति और देश के सेवक तो बनना चाहते है, पर जरासा भी कष्ट नहीं उठाना चाहते।

लाला भगतराम धूप में तख्तेपर बैठे हुक्का पी रहे थे। उनकी छोटी लड़की गोद में बैठी हुई धुए को पकड़न के लिए बार बार हाथ बढ़ाती थी। सामने जमीनपर कई मिस्त्री और राजगीर बैठे हुए थे। भगतराम पद्मसिंह को देखते ही उठखड़े हुए और पालागन करके बोले, मैने शाम ही को सुना था कि आप आ गये, आज प्रातःकाल आनेवाला था, लेकिन कुछ ऐसा झंझट आ पड़ा कि अवकाश ही न मिला। यह ठेकेदारी का काम बड़े झगड़े का है। काम कराइये, अपने रुपये लगाइये, उसपर दूसरों की खुशामद कीजिये। आजकल इजिनियर साहब किसी बातपर ऐसे नाराज हो गए है कि मेरा कोई काम उन्हें पसन्द ही नही आता। एक पुल बनवाने का ठीका लिया था। उसे तीन बार गिरवा चुके हैं। कभी कहते, यह नहीं बना, कभी कहते, वह नहीं बना। नफा कहाँ से होगा, उलटे नुकसान होने की सम्भावना है। कोई सुननेवाला नहीं है। आपने सुन होगा, हिन्दू मेम्बरों का जलसा हो गया।

पद्म—हाँ, सुना और सुनकर शोक हुआ। आपसे मुझे पूरी आशा थी। क्या आप इस सुधार को नहीं समझते?

भगतराम—इसे केवल उपयोगी ही नहीं समझाता, बल्कि हृदय से इसकी सहायता करना चाहता हूँ पर मै अपनी रायका मालिक नहीं हूँ। मैंने अपने को स्वार्थ के हाथों में बेच दिया है। मुझे आप ग्रामोफोन का रेकार्ड समझिये, जो कुछ भर दिया जाता है वहीं कह सकता हूँ और कुछ नहीं।