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२१० सेवासदन


ढाल जो दीवारसे लटक रही थी इस झनकारसे थरथराने लगी। बोले सचकहिये,आपने किससे सुना?

पद्मसिह इस कुसमय हँसीका तात्पर्य न समझकर कुछ भौंचक से हो गये। उन्हें मालूम हुआ कि कुँअर साहब मुझे बनाना चाहते है। चिढकर बोले, सभी कह रहे है, किस-किसका नाम लू?

कुँअर साहबने फिर जोरसे कहकहा मारा और हँसते हुए पूछा, और आपको विश्वास भी आ गया?

पद्मसिंहको अब इसमें कोई सन्देह न रहा कि यह सब मुझे झेंपानेका स्वाँग है, जोर देकर बोले, अविश्वास करनेके लिए मेरे पास कोई कारण नही है।

कुंअर-कारण यही है कि मेरे साथ घोर अन्याय होगा। मैने अपनी समझ में अपनी सम्पूर्ण वाक्यशक्ति आपके प्रस्तावके समर्थनमें खर्च कर दी थी। यहाँतक कि मैने विरोधको गम्भीर विचारके लायक भी न सोचा। व्यंग्योक्ति ही से काम लिया। (कुछ याद करके) हाँ एक बात हो सकती है। समझ गया। (फिर कहकहा मारकर) अगर यह बात है तो मैं कहुँगा कि म्युनिसिपैलिटी बिलकुल बछियाके ताऊ लोगो ही से भरी हुई हैं। व्यंग्योक्ति तो आप समझते ही होंगे । बस,यह सारा कसूर उसीका है। किसी सज्जन ने उसका भाव न समझा। काशीके सुशिक्षित सम्मानित म्युनिसिपल कमिश्नरों मे किसीने भी एक साधारण-सी बात न समझी। शोक! महाशोक!! महाशय, आपको बड़ा कष्ट हुआ। क्षमा कीजिये मैं इस प्रस्तावका हृदयसे अनुमोदन करता हूँ।

पद्मसिह भी मुस्कुराये। कुँअर साहबकी बातों पर विश्वास आाया। बोले, अगर इन लोगों ने ऐसा धोखा खाया तो वास्तव मे उनकी समझ बड़ी मोटी है। मगर प्रभाकरराव धोखें में आ जायें, यह समझ में नहीं आता, पर ऐसा मालूम होता है कि नित्य अनुवाद करते-करते उनकी बुद्धि भी गायब हो गई है।

पद्मसिहं जब यहाँ से चले तो उनका मन ऐसा प्रश्न या मानों वह