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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/१९१

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सेवासदन
 


मैं उसे मना नहीं सकता? मैं उसके सामने हाथ जोडूँगा उसके पैर पडूँगा और अपने आँँसुओं से उसके मनकी मैल धो दूँगा, वह मुझसे कितनी रुठे, लेकिन मेरे प्रेम का चिन्ह अपने हृदय से नहीं मिटा सकती। आह! वह अगर अपने कमल नेत्रों मे आँँसू भरे हुए मेरी ओर ताके तो मैं उसके लिये क्या न कर डालूँँगा? यदि उसे कोई चिंता हो तो मैं उस चिंंता को दूर करनेके लिये अपने प्राण तक समर्पण कर दूँगा। तो क्या वह इस अपराध को क्षमा न करेगी? लेकिन ज्योंही वह दालमंडी के सामने, पहुँचा, उसकी यह प्रेम कामनाएँ उसी प्रकार नष्ट हो गई जैसे अपने गाँव में सन्ध्या समय नीम के नीचे देवी की मूर्ति देखकर उसकी तर्कनाएँ नष्ट हो जाती थी। उसने सोचा, कहीं वह मुझे देखें और अपने मन में कहे, वह जा रहे है कुँँअर साहब, मानों सचमुच किसी रियासत के मालिक है। कैसा कपटी धूर्त है। यह सोचते ही उसके पैर बंध गये। आगे न जा सका।

इसी प्रकार कई दिन बीत गये। रात और दिन में उसकी प्रेमकल्पनाएँ जो बालूकी दीवार खड़ी करती, वे सन्ध्या समय दालमंडी के सामने अविश्वास के एक ही झोके में गिर पड़ती था।

एक दिन वह घूमते हुए कुईन्स पार्क जा निकला वहाँ एक शामियाना तना हुआ था और लोग बैठे हुए प्रोफेसर रमेशदत्त का प्रभावशाली व्याख्यान सुन रहे थे। सदन घोड़े से उतर पड़ा और व्याख्यान सुनने लगा। उसने मनमे निश्चय किया कि वास्तव में वेश्याओं से हमारी बड़ी हानि हो रही है ये समाज के लिये हलाहल के तुल्य है। मैं बहुत बचा, नहीं तो कहीं का न रहता। इन्हें अवश्य शहर से बाहर निकाल देना चाहिए। यदि ये बाजार में न होती तो मैं सुमन बाई के जाल मे कभी न फंसता।

दूसरे दिन वह फिर कुईन्म पार्क की तरफ गया। आज यहाँ मुन्शी अबुलवफा का भावपूर्ण ललित व्याख्यान हो रहा था। सदन ने उसे भी ध्यान से सुना। उसने विचार किया, निस्संदेह वेश्याओ से हमारा उपकार होता है। सच तो है, ये न हो तो हमारे देवताओं की स्तुति करनेवाला भी कोई न रहे। यह भी ठीक ही कहा कि वेश्यागृह ही वह स्थान है जहाँ हिन्दू