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सेवासदन
 


बीहड़ प्रतीत होते थे; वही नदियाँ और झील जिनके तट पर से आप आंँखें बन्द किये निकल जाते थे, कुछ समय के पीछे एक अत्यंत मनोरम, शान्तिमय रूप धारण करके आपके स्मृति-नेत्रो के सामने आती है और फिर आप उन्हीं दृश्यों को देखने की आकांक्षा करने लगते है। कृष्णचन्द्र उस भूत- कालिक जीवन का स्मरण करते-करते गद्गगद् हो गये। उनकी आँखों से आंँसू की बूंद टपक पड़ी। हाय! उस आनन्दमय जीवन का ऐसा विवादमय अन्त हो रहा है! मैं अपने ही हाथो से अपनी ही गोद की खिलाई हुई लड़की का वध करने को प्रस्तुत हो रहा हूँ! कृष्णचन्द्र को सुमन पर दया आई। वह बेचारी कुएँ में गिर पड़ी है। क्या मैं अपनी ही लड़की पर, जिसे में आँखों की पुतली समझता था, जिसे सुख से रखनके लिये मैंने कोई बात उठा नहीं रखी, इतना निर्दय हो जाऊँ कि उसपर पत्त्थर फेकूं? लेकिन यह दया का भाव कृष्णचन्द्र के हृदय में देर तक न रह सका। सुमन के पापाभिनय का सबसे घृणोत्पादक भाग यह था कि आज उसका दरवाजा सबके लिये खुला हुआ है। हिन्दू, मुसलमान सब वहाँ प्रवेश कर सकते है। यह ख्याल आते ही कृष्णचन्द्र का हृदय लज्जा और ग्लानि से भर गया।

इतने में पंडित उमानाथ उनके पास आकर बैठ गये और बोले, मैं वकील के पास गया था। उनकी सलाह है कि मुकद्दमा दायर करना चाहिये।

कृष्णचन्द्र ने चौंककर पूछा कैसा-मुकदमा?

उमा---उन्ही लोगोंपर, जो द्वार से बारात लौटा ले गये।

कृष्ण---इससे क्या होगा?

उमा---इससे यह होगा कि या तो वह फिर कन्या से विवाह करेगे या हरजाना देंगे।

कृष्ण—पर क्या और बदनामी न होगी?

उमा—बदनामी जो कुछ होनी थी हो चुकी, अब किस बात का डर है? मैंने एक हजार रुपये तिलक में दिये चार पाँच सौ खिलाने पिलाने में खर्च किये, यह सब क्यों छोड़ दूँगा, यही रुपये किसी कंगाल कुलीन को दे