हृदय सुमन की ओर से बहुत उदार हो गया था। कभी-कभी उनका जी चाहता था कि चलकर उसके चरणों पर सिर रख दूँ।
गजाधर बोले, इसका कारण मेरा अन्याय था। यह सब मेरी, निर्दयता ओर अमानुषीय व्यवहार का फल है। वह सर्वगुण संपन्न थी, वह इस योग्य थी कि किसी बड़े घर की स्वामिनी बनती। मुझ जैसा दुष्ट दुरात्मा दुराचारी मनुष्य उसके योग्य न था। उस समय मेरी स्थूल दृष्टि उसके गुणों को न देख सकी। ऐसा कोई कष्ट न था जो उस देवी को मेरे साथ न झेलना पड़ा हो। पर उसने कभी मन मैला न किया। वह मेरा आदर करती थी। पर उसका यह व्यवहार देखकर मुझे उसपर संदेह होता था कि वह मेरे साथ कोई कौशल कर रही है। उसका संतोष, उसकी भक्ति, उसकी गभीरता मेरे लिये दुर्बोध थी। मैं समझता था, वह मुझसे कोई चाल चल रही है। अगर वह मुझसे छोटी-छोटी वस्तुओं के लिये झगड़ा करती, रोती, कोसती, ताने देती तो उसपर मुझे विश्वास होता। उसका ऊँचा आदर्श मेरे अविश्वास का कारण हुआ। मैं उसके सतीत्व पर संदेह करने लगा। अन्त को यह दशा हो गई कि एक दिन रात को एक सहेली के घरपर केवल जरा विलब हो जानेके कारण मैंने उसे घर से निकाल दिया।
कृष्णचन्द्र बात काटकर बोले, तुम्हारी बुद्धि उस समय कहाँ गई थी? तुमको जरा भी ध्यान न रहा कि तुम अपनी इस निर्दयता से कितने बड़े कुल को कलंकित कर रहे हो?
गजाधर——महाराज, अब मैं क्या बताऊँ कि मुझे क्या हो गया था? मैने फिर उसकी सुध न ली। पर उसका अन्तःकरण शुद्ध था? पापाचरण से उसे घृणा थी। अब वह विधवाश्रम मे रहती है और सब उससे प्रसन्न है। उसकी धर्मनिष्ठा देखकर लोग चकित हो जाते है।
गजाधर की बात सुनकर कृष्णचन्द्र का हृदय सुमन की ओर से कुछ नरम पड़ गया। लेकिन वह जितना ही इधर नरम था उतना ही दूसरी ओर कठोर हो गया। जैसे साधारण गति से बहती हुई जलधारा सामने रुककर दूसरी ओर और भी वेग से बहने लगती है। उन्होंने गजाधर को सरोष नेत्रों से