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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/२२६

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सेवासदन
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भय, उससे आँँख मिलने की लज्जा मुझे मार डालती है। जब वह तिरस्का की आँँखो से मुझे देखेगी, उस समय में क्या करूँगी? और जो कहीं उसने घुणा वश मुझसे गले मिलने मे संकोच किया, तब तो मैं उसी क्षण विष खा लूँँगी। इस दुर्गति से तो प्राण दे देना अच्छा है।

गजाधार ने सुमन को श्रद्धाभाव से देखा, उन्हें अनुभव हुआ कि ऐसी अवस्था में भी वही करता जो सुमन करना चाहती है। बोले, सुमन तुम्हारे यह विचार यथार्थ है, पर तुम्हारे हृदय पर चाहे जो कुछ बीते, शान्ता के हित के लिये ततुम्हें सब कुछ सहना पड़ेगा। तुमसे उसका जितना कल्याण हो सकता है उतना अन्य किसी से नहीं हो सकता।अबतक तुम अपने लिये जीती थीं, अब दूसरो के लिये जीओ।

यह कह गजाधर जिधर से आये थे उधर ही चले गय। सुमन गंगाजी के तटपर देरतक खड़ी उनकी बातों पर विचार करती रही, फिर स्नान करके आश्रम की ओर चली, जैसे कोई मनुष्य समर से परास्त होकर घर की ओर जाता है।

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शान्ता ने पत्र तो भेजा, पर उसको उत्तर आने की कोई आशा न थी। तीन दिन बीत गये, उसका नैराश्य दिनों दिन बढ़ता जाता था। अगर कुछ अनुकूल उत्तर न आया तो उमानाथ अवश्य ही उसका विवाह कर देगे, यह सोचकर शान्ता का हृदय थरथराने लगता था। वह दिन में कई बार देवी के चबूतरेपर जाती और नाना प्रकार की मनौतियाँ करती। कभी शिवजी के मन्दिर में जाती और उनसे अपनी मनोकामना कहती। सदन एक क्षण के लिये भी उसके ध्यान से न उतरता। वह उसकी मूर्ति को हृदय ने त्रोके सामने बैठाकर उससे कर जोड़कर कहती, प्राणनाथ, मुझे क्यों नहीं अपनाते? लोक निन्दा के भय से। हाय, मेरी जान इतनी सस्ती है कि इन दामों विके। तुम मुझे त्याग रहे हो, आग में झोक रहे हो, केवल इस अपराध के लिये कि मैं सुमन की