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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/२२७

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सेवासदन
 


बहन हूँ। यही न्याय है। कहीं तुम मुझे मिल जाते, मैं तुम्हें पकड़ पाती, फिर देखती कि मुझसे कैसे भागते हो? तुम पत्थर नहीं हो कि मेरे आँसुओं से न पसीजते। तुम अपनी आँखों से एक बार मेरी दशा देख लेते तो फिर तुमसे न रहा जाता। हाँ, तुमसे कदापि न रहा जाता। तुम्हारा विशाल हृदय करुणा शून्य नहीं हो सकता। क्या करूँ तुम्हें अपने चित्तकी दशा कैसे दिखाऊँ।

चौथे दिन प्रात काल पद्मसिंह का पत्र मिला। शान्ता भयभीत हो गई। उसको प्रेमाभिलापाएँ शिथिल पड़ गई। अपनी भावी दशा की शंकाओं ने चित्त को अशान्त कर दिया।

लेकिन उमानाथ फूले न समाये। बाजे का प्रबन्ध किया। सवारियाँ एकत्रित की, गाँव भर में निमन्त्रण भेजे, मेहमानों के लिये चौपाल में फर्श आदि बिछवा दिये। गाँवे के लोग चकित थे, यह कैसा गौना है? विवाह तो हुआ ही नहीं गौना कैसा? वह समझते थे कि उमानाथ ने कोई न कोई चाल खेली है। एक ही धूर्त है। निर्दिष्ट समय पर उमानाथ स्टेशन गये और बाजे बजवाते हुए मेहमानों को अपने घर लाये। चौपाल में उन्हें ठहराया। केवल तीन आदमी थे। पद्मसिंह विट्ठलदास और एक नौकर।

दूसरे दिन सन्ध्या समय विदाई का मुहूर्त था, तीसरा पहर हो गया किन्तु उमानाथ घर में गाँव की कोई स्त्री नहीं दिखाई देती। वह बार-बार अन्दर आते है, तेवर बदलते हैं, दीवारो को धमकाकर कहते है, में एफ-एक की देख लूँगा। जान्हवी से बिगड़कर कहते है कि मैं सबकी खबर लूँगा। लेकिन वह धमकियाँ जो कभी नबरदारों को कंपायामान कर दिया करती थी, आज किसी पर असर नहीं करती। बिरादरी अनुचित दबाव नहीं मानती है घमण्डियों का सिर नीचा करने के लिये वह ऐसे ही अवसरों की ताक में रहती है।

सन्ध्या हुई। कहा रोने पालकी द्वारपर लगा दी। जान्हवी और शान्ता गले मिलकर खूब रोई।