वेश्याओं का नाच कराने के लिये एक भारी टैक्स लगाया जाय, और ऐसे जलसे किसी हालत में खुले स्थानों में न हो।
प्रोफेसर रमेशदत्त ने उसका समर्थन किया।
मैयद शफकतअली (प० डिप्टो० कले) ने कहा——इस तज-वोज में मुझे पूरा इत्तफाक है, लेकिन बगैर मुनासिब तरमीम के मैं इस तसलीम नहीं कर सकता। मेरी राय है कि रिज्योलूशन के पहले हिस्से में यह अल्फाज बढ़ा दिये जायें——वइस्तसनाय उनके जो नौ माह के अन्दर या तो अपनी निकाह कर ले, या कोई हुनर सीख ले, जिससे बह जायज तरीके पर जिन्दगी बसर कर सके।
कुँवर अनिरुद्ध सिंह बोले, मुझे इस तरमीम से पूरी सहानुभूति है। हमें वेश्याओं का पतित समझने का कोई अधिकार नहीं है, यह हमारी परम घप्टता है। हम रात-दिन जो रिश्वते लेते हैं, सूद खाते है, दीनों का ‘रक्त चूसते है, असहायों का गला काटते हैं, कदापि इस योग्य नहीं है कि समाज के किसी अगको नीच या तुच्छ समझे। सबसे नीच हम है, सबसे पापी, दुराचारी, अन्यायी हम है जो अपने काे शिक्षित, सभ्य, उदार, सच्चा समझते है। हमारे शिक्षित भाइयों ही की बदौलत दालमण्डी आवाद है, चाैक में चहल-पहल है, चकलों में रौनक है। यह मीना-बाजार हम लोगों ही ने सजाया है, ये चिड़ियाँ हम लोगों ने ही फँसाई है, ये कठपुतलियाँ हमने बनाई है। जिस समाज से अत्याचारी जमीदार, रिश्वती राज्य-कर्मचारी, अन्यायी महाजन, स्वार्थी बन्धु अदर और सम्मान के पात्र हो, वहाँ दालमण्डी क्यों न आबाद हो? हराम का धन हरामकारी के सिवा और कहाँ जा सकता है? जिस दिन नजराना, रिश्वत और सूद-दर-सूदका अन्त होगा, उसी दिन दालमण्डी उजड़ जायगी, वे चिड़ियाँ उड़ जायेंगी-पहले नहीं। मुलय प्रस्ताव इस तरमीम के बिना नश्तरका वह घाव है जिसपर मरहम नहीं। मैं उसे स्वीकार नहीं कर सकता।
प्रभाकर राव ने कहा, मेरी समझमें नहीं आता कि इस तरमीमका रिज्योल्यूशन से क्या संबध है? इसको आप अलग दूसरे प्रस्ताव के रूप में