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सेवासदन
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पद्म—नहीं, उद्यम तो यह नहीं है लेकिन संपादक लोग अपने ग्राहक बढ़ाने के लिये इस प्रकार को कोई न कोई फुलझड़ी छोड़ते रहते हैं। ऐसे आक्षेपपूर्ण लेखों से पत्रों की बिक्री बढ़ जाती है, जनता को ऐसे झगड़ों में आनन्द प्राप्त होता है और संपादक लोग अपने महत्व को भूलकर जनता के इस विवाद-प्रेम से लाभ उठाने लगते हैं। गुरुपद को छोड़कर जनता के कलह-प्रेम का आवाहन करने लगते हैं। कोई-कोई संपादक तो यहाॅं तक कहते है कि अपने ग्राहकों को प्रसन्न रखना हमारा कर्तव्य है। हम उनका खाते है तो उन्हीं का गावेगें।

सुभद्रा--तब तो ये लोग केवल पैसे के गुलाम है। इनपर क्रोध करने की जगह दया करनी चाहिये।

पद्मसिंह मेज से उठ आये। उत्तर लिखने का विचार छोड़ दिया। वह सुभद्रा को ऐसी विचारशीला कभी न समझते थे, उन्हें अनुभव हुआ कि यद्यपि मैने बहुत विद्या पढ़ी है, पर इसके हृदय की उदारता को मैं नहीं पहुँचता। यह अशिक्षित होकर भी मुझसे कहीं उच्च विचार रखती है। उन्हें आज ज्ञात हुआ कि स्त्री सन्तान-हीन होकर भी पुरुष के लिए शान्ति, आनन्द का एक अविरल स्रोत है। सुभद्रा के प्रति उनके हृदय में एक नया प्रेम जाग्रत हो गया। एक लहर उठी जिसने बरसों के जमे हुए मालिन्य को काटकर बहा दिया। उन्होंने विमल, विशुद्धभाव से उसे देखा। सुभद्रा उसका आशय समझ गई और उसका हृदय आनन्द से विहृल गद्गगद् हो गया।

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सदन जब सुमन को देखकर लौटा तो उसकी दशा उस दरिद मनुष्य की-सी थी, जिसका वर्षों का धन चोरों ने हर लिया हो।

वह सोचता था, सुमन मुझसे बोली क्यों नहीं, उसने मेरी ओर ताका क्यों नहीं? क्या वह मुझे इतना नीच समझती है? नहीं, वह अपने पूर्व चरित्रपर लज्जित है और मुझे भूल जाना चाहती है। संभव है,