सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सेवासदन.djvu/२४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
सेवासदन
२८७
 


दरवाजे बन्द हैं। मैं या तो कही चपरासी हो सकता हूँ या बहुत होगा तो कान्सटेबिल हो जाऊँगा। बस, यही मेरी सामर्थ्य है। यह हमारे साथ कितना बड़ा अन्याय है, हम कैसे ही चरित्रवान् हों, कितने ही बुद्धिमान् हों, कितने ही विचारशील हों, पर अग्रेजी भाषा का ज्ञान न होने से उनका कुछ मूल्य नहीं। हमसे अधम और कौन होगा जो इस अन्याय को चुपचाप सहते हैं। नहीं, बल्कि उस पर गर्व करते हैं। नहीं, मुझे नौकरी करने का विचार मन से निकाल डालना चाहिए।

सदन की दशा इस समय उस मनुष्य की सी थी जो रात को जंगल में भटकता हुआ अन्धेरी रात में झुँझलाता है।

इसी निराशा और चिन्ता की दशा में एक दिन वह टहलता हुआ, नदी के किनारे उस स्थान पर जा पहुँचा जहाँ बहुत सी नावे लगी हुई थी। नदी में छोटी-छोटी नावे इधर-उधर इठलाती फिरती थी। किसी-किसी नौका में सुरीली ताने सुनाई देती थी। कई किश्तियों पर से मल्लाह लोग बोरे उतार रहे थे। सदन एक नाव पर जा बैठा। संध्या समय की शान्तिदायिनी छटा और गंगातट के मनोरम काव्यमय दृश्य ने उसे वशीभूत कर लिया। वह सोचने लगा, यह कैसा आनन्दमय जीवन है, ईश्वर मुझे भी ऐसा ही एक झोपड़ा दे देता, तो मैं उसीपर सन्तोष करता, यही नदी तट पर विचरता लहरों पर चलता और आनन्द के राग गाता। शान्ता झोपड़ा के द्वारपर खड़ी मेरी राह देखती। कभी-कभी हम दोनों नाव पर बैठकर गंगा की सैर करते। उसकी रसिक कल्पना ने उस सरल सुखमय-जीवन का ऐसा सुन्दर चित्र खींचा, उस आनन्दमय स्वप्न के देखने में वह ऐसा मग्न हुआ कि उसका चित्त ब्याकुल हो गया। वहाँ की प्रत्येक वस्तु उस समय सुख, शान्ति और आनन्द के रंग में डूबी हुई थी। वह उठा और एक मल्लाह से बोला, क्यों जी चौधरी यहाँ कोई नाव बिकाऊ भी है?

मल्लाह बैठा हुक्का पी रहा था। सदन को देखते ही उठ खड़ा हुआ और उसे कई नावे दिखाई। सदन ने एक नई किश्ती पसन्द की, मोल-तोल होने लगा, कितने ही और मल्लाह एकत्र हो गये। अन्त में ३००) में नाव