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सेवासदन
 


कर दिया। उसे अपने माता-पिता पर, अपने चाचा पर, संसार पर और अपने आपपर क्रोध आता। अभी थोड़े ही दिन पहले वह स्वयं फिटन पर सैर करने निकलता था, लेकिन अब किसी फिटन को आते देखकर उसका रक्त खौलने लगता था। वह किसी फैशनेबुल मनुष्य को पैदल चलते पाता तो अदबदाकर, उससे कन्धा मिलाकर चलता और मन में सोचता कि यह जर भी नाक-भौं सिकोड़े तो इसकी खबर लूँ। बहुधा वह कोचवानों के चिल्लाने की परवाह न करता। सबसे छेड़कर लड़ना चाहता था। ये लोग गाड़ियों पर सैर करते हैं, कोट-पतलून डालकर बनठन कर हवा खाने जाते हैं और मेरा कहीं ठिकाना नहीं।

घर पर जमींदारी होने के कारण सदन के सामने जीविका का प्रश्न कभी न आया था। इसीलिए उसने शिक्षा की ओर विशेष ध्यान न दिया था, पर अकस्मात् जो यह प्रश्न उसके सामने आ गया, तो उसे मालूम होने लगा कि इस विषय में मैं असमर्थ हूँ। यद्यपि उसने अंग्रेजी न पढ़ी थी, पर इधर उसने हिन्दी भाषा का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। वह शिक्षित समाज को मातृभाषा में अश्रद्धा रखने के कारण देश और जाति का विरोधी समझता था। उसे अपने सच्चरित्र होने पर भी घमण्ड था। जबसे उसके लेख “जगत” में प्रकाशित हुए थे वह अंग्रेजी पढ़े-लिखे आदमियों को अनादर की दृष्टि से देखने लगा था। यह सबके सब स्वार्थ-सेवी हैं, इन्होंने केवल दोनों का गला दबाने के लिए, केवल अपना पेट पालने के लिए अंगरेजी पढ़ी है, यह सबके सब फैशन के गुलाम हैं, जिनकी शिक्षा ने उन्हें अंगरेजो का मुँह चिढ़ाना सिखा दिया है, जिनमें दया नहीं, धर्म नहीं, निज भाषा से प्रेम नहीं, चरित्र नहीं, आत्मबल नहीं, वे भी कुछ आदमी है। ऐसे ही विचार उसके मन में आया करते थे लेकिन अब जो जीविका की समस्या उसके सामने आई तो उसे ज्ञात हुआ कि मैं इनके साथ अन्याय कर रहा था। ये दया के पात्र हैं। मैं भाषा का पंण्डित न सही, पर बहुतों से अच्छी भाषा जानता हूँ, मेरा चरित्र उच्च न सही, पर बहुतों से अच्छा है, मेरे विचार उच्च न हों, पर ऐसे नीच नहीं, लेकिन मेरे लिए सब