पृष्ठ:सेवासदन.djvu/२४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
२९०
सेवासदन
 

सदन-- में घर में किसी से नहीं माँगना चाहता।

जीतन ने माला लेकर देखी, उसे हाथों से तौला और शाम तक उसे बेच लाने की बात कहकर चला गया, मगर बाजार न जाकर वह सीधे अपनी कोठरी में गया, दोनो किवाड़ बन्द कर लिए और अपनी खाट के नीचे की भूमि खोदने लगा। थोड़ी देर में मिट्टी की एक हाँड़ी निकल आयी। यही उसकी सारे जन्म की कमाई थी, सारे जीवन की किफायत, कंजूसी, काट कपट, बेईमानी, दलाली, गोलमाल, इसी हाँडी के अन्दर इन रुपयों के रूप में संचित थी। कदाचित् इसी कारण रुपयों के मुँहपर कालिमा भी लग गयी थी। लेकिन जन्मभर के पापों का कितना संक्षिप्त फल था! कितने सस्ते बिकते है!

जीतन ने रुपये गिनकर २०), २०J की ढेरियाँ लगाईं। कुल १७ ढेरियाँ हुईं। तब उसने तराजू पर माले को रुपयों से तौला। वह २५) रुपिये भर से कुछ अधिक थी। सोने की दर बजार में चढ़ी हुई थी, पर उसने एक रुपये भरके २५) ही लगाये। फिर रुपयों की २५-२५ की ठेरियाँ बनाई। १३ ढेरियाँ हुईं और १५) बच रहे। उसके कुल रुपये माला के मूल्य से २८५J कम थे। उसने मन में कहा, अब यह चीज हाथ से नहीं जाने पायगी। कह दूँगा माना १३ ही भर थी। १५) और बच जायेंगे। चलो मालारानी, तुम इस दरबे में आराम से बैठो।

हाँडी फिर, धरती के नीचे चली गई, पापों का आकार और भी सूक्ष्म हो गया।

जीतन इस समय उछला पड़ता था। उसने बात-की-बात में २८५) पर हाथ मारा था। ऐसा सुअवसर उसे कभी नहीं मिला था। उसने सोचा, आज अवश्य किसी भले आदमी का मुँह देखकर उठा था। बिगड़ी हुई आँखो के सदृश बिगड़े हुए ईमान में ज्योति प्रवेश नहीं करती।

१० बजे जीतन ने ३२५) लाकर सदन के हाथों में दिये। सदन को मानो पड़ा हुआ धन मिला।

रुपये देखकर जीतन ने नि:स्वार्थभाव से मुँह फेरा। सदन ने ५)