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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/२५०

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सेवासदन
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निकाल कर उसकी ओर बढ़ाये और बोला यह लो तमाखू पीना।

जीतन ने ऐसा मुँह बनाया, जैसे कोई वैष्णव मदिरा देखकर मुँह बनाता है, और बोला भैया, तुम्हारा दिया तो खाता ही हूँ, यह कहाँ पचेगा?

सदन—नहीं नही मैं खुशी से देता हूँ। ले लो, कोई हरज नहीं है।

जीतन-—नहीं भैया, यह न होगा, ऐसा करता तो अबतक चार पैसे का आदमी हो गया होता, नारायण तुम्हें बनाये रखें।

सदन को विश्वास हो गया कि यह बड़ा सच्चा आदमी है। इसके साथ अच्छा सलूक, करूँगा।

सन्ध्या समय सदन की नाव गंगा की लहरों पर इस भाँति चल रही थी जैसे आकाश में मेघ चलते हैं। लेकिन उसके चेहरे पर आनन्द-विकास की जगह भविष्य की शंका झलक रही थी, जैसे कोई विद्यार्थी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद चिन्ता में ग्रस्त हो जाता है। उसे अनुभव होता है कि वह बाँध जो संसार रूपी नदी की बाढ़ से मुझे बचाये हुए था, टूट गया है और में अथाह सागर में खड़ा हूँ। सदन सोच रहा था कि मैंने नाव तो नदी में डाल दी, लेकिन यह पार भी लगेगी? उसे अब मालूम हो रहा था कि वह पानी गहरा है, वहा तेज है और जीवन यात्रा इतनी सरल नहीं है, जितनी मैं समझता था। लहर यदि मीठे स्वरों में गाती है तो भयंकर ध्वनि से गरजती भी है, हवा अगर लहरों को थपकियाँ देती है, तो कभी कभी उन्हे उछाल भी देती है।

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प्रभाकरराव का क्रोध बहुत कुछ तो सदन के लेखों से ही शांत हो गया था और जब पद्मसिंह ने सदन के आग्रह से सुमन का पूरा वृतान्त उसे लिख भेजा, तो वह सावधान हो गए।

म्युनिसिपैलिटी में प्रस्ताव को पास हुए लगभग तीन मास बीत गये; पर उसकी तरमीम के विषय में तेगअली ने जो शंकाएँ प्रकट की थी वह निर्मल प्रतीत हुई। न दालमण्डी के कोठों पर दुकानें ही सजी और न वेश्याओें ने निकाह-बंधन से ही कोई विशेष प्रेम प्रकट किया। हाँ, कई