पृष्ठ:सेवासदन.djvu/२५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
३०४
सेवासदन
 


दो-तीन महिलाएँ तैयारियाँ कर रही थी और और कई अन्य देवियों का अपने घरों पर पत्र भेजे थे। केवल वही चुपचाप बैठी थी, जिनका कोई ठिकाना नहीं, पर वह भी सुमन से मुँह चुराती फिरती थीं। अपमान न सह सकी। उसने शान्ता से सलाह की। शान्ता बड़ी दुविधा में पड़ी पद्मसिंह की आज्ञा के बिना वह आश्रम से निकलना अनुचित समझती थी। केवल यही नहीं कि आशा का एक पतला सूत उसे यहाँ बाँधे हुए था बल्कि इसे वह धर्म का बन्धन समझती थी, वह सोचती थी, जब मैंने अपना सर्वस्व पद्मसिंह के हाथों में रख दिया, तब अब स्वेच्छा पथ पर चलेगा। मुझे कोई अधिकार नहीं है। लेकिन जब सुमन ने निश्चित दिया कि तुम रहती हो तो रहो पर मैं किसी भाँति यहाँ न रहूँगी। शान्ता को वहीं रहना असम्भव-सा प्रतीत होने लगा। जंगल में भटके हुए उस मनुष्य की भांति जो किसी दूसरे को देखकर उसके साथ भेजे इसलिए हो लेता है कि एकसे दो हो जायेंगे शान्ता अपनी बहन के साथ चलने को तैयार हो गई।

सुमन ने पूछा-और जो पद्मसिंह नाराज हों?

शान्ता--उन्हे एक पत्र द्वारा समाचार लिख दूँगी।

सुमन--और जो सदनसिंह बिगड़े?

शान्ता-—जो दण्ड देंगे सह लूँगी।

सुमन--खूब सोच लो, ऐसा न हो कि पीछे पछताना पड़े।

शान्ता--रहना मुझे यहीं चाहिए पर तुम्हारे बिना मुझसे रहा न जायगा। हाँ, यह बता दो कि कहाँ चलोगी?

सुमन--तुम्हें अमोला पहुँचा दूँगी।

शान्ता--और तुम?

सुमन--मेरे नारायण मालिक है। कहीं तीर्थ यात्रा करने चली जाऊँगी। दोनों बहनों में बहुत देर बातें हुई। फिर दोनों मिलकर रोई। ज्योंहि आठ बजे विट्ठलदास भोजन करने के लिए अपने घर आज आठ और भोजन गए दोनों बहनें सबकी आँख बचाकर चल खड़ी हुई।