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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/२६

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सेवासदन
२७
 

आकाश मे बादल छा रहे थे। हवा बन्द थी। एक पत्ती भी न हिलती थी। गजाधर प्रसाद दिन भर के थके हुए थे। चारपाई पर जाते ही निद्रा में निमग्न हो गये पर सुमन को बहुत देर तक नीद न आई।

दूसरे दिन सन्ध्या को जब फिर चिक उठाकर बैठी तो उसने भोली को छज्जेपर बैठे देखा। उसने बरामदे मे निकलकर भोली से कहा रात तो आपके यहाँ बड़ी धूम थी।

भोली समझ गई कि मेरी जीत हुई! मुस्कुराकर बोली, तुम्हारे लिए शीरनी भेज दूं? हलवाई की बनाई हुई है। ब्राह्मण लाया है। सुमन ने संकोच से कहा भिजवा देना।


सुमन को ससुराल आये डेढ़ साल के लगभग हो चुका था, पर उसे मैके जाने का सौभाग्य न हुआ था। वहीं से चिट्ठयाँ आती थी। सुमन उत्तर में अपनी माँ को समझाया करती, मेरी चिन्ता मत करना, मैं बहुत आनन्द से हूं, पर अब उसके उत्तर अपनी विपत्ति की कथाओ से भरे होते थे। मेरे जीवन के दिन रो-रोकर कट रहे है। मैने आप लोगो का क्या विगाडा़ था कि मुझे इस अन्धे कुएँ में ढकेल दिया। यहाँ न रहने को घर है, न पहिनने को वस्त्र, न खाने को अन्न। पशुओं की भांति रहती हुँ।

उसने अपनी पडोसिनो से मैके का बखान करना छोड़ दिया। कहाँ तो उनसे अपनी पति की सराहना किया करती थी, कहाँ अब उसकी निन्दा करने लगी। मेरा कोई पूछने वाला नही है। घरवालो ने समझ लिया कि मर गई। घर में सब कुछ है, पर मेरे किस काम का? वह समझते होगे, यहाँ में फूलों की सेज पर सो रही हुँ और मेरे ऊपर जो बीत रही है बह में ही जानती हूं।

गजाधरप्रसाद साथ उसका बर्ताव पहले से कही रूखा हो गया। वह उन्ही को अपनी इस दशा का उत्तरदाता समझती थी। वह देर मे सोकर उठती, कई दिन घरों झाडू़ नहीं देती। कभी कभी गजाधर को