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सेवासदन
 


सदन के स्वभाव में भी अब कायापलट हो गया है। वह प्रेम का आनन्द भोग करने में तन्मय हो रहा है। वह अब दिन चढ़े उठता है, घण्टों नहाता है, बाल संवारता है, कपड़े बदलता है, मुगन्ध मलता है। नौ बजे से पहले वह अपनी बैठक में नहीं आता और आता भी है तो जमकर बैठता नहीं, उसका मन कहीं और रहता है। एक-एक पल में भीतर जाता है और अगर बाहर किसी से बात करने में देर हो जाती है, तो उकताने लगता है। शान्ता ने उस पर वशीकरण मन्त्र डाल दिया है।

सुमन घर का सारा काम भी करती है और बाहर का भी। वह घड़ी रात रहे उठती है और स्नान-पूजा के बाद सदन के लिए जलपान बनाती है। फिर नदी के किनारे आकर नाव खुलवाती है। नौ बजे भोजन बनाने बैठ जाती है। ग्यारह बजेतक यहाँ से छुट्टी पाकर वह कोई-न-कोई काम करने लगती है। नौ बजे रात को जब सब लोग सोने चले जाते है, तो वह पढ़ने बैठ जाती है, तुलसी की विनय पत्रिका और रामायण से उसे बहुत प्रेम है। कभी भक्तमाल पढ़ती है, कभी विवेकानन्द के व्याख्यान और कभी रामतीर्थ लेख। वह विदुषी स्त्रियों के जीवनचरित्रों को बड़े चाव से पढ़ती है। मीरा पर उसे असीम श्रद्धा है। वह बहुधा धार्मिक ग्रन्य ही पढ़ती है। लेकिन जानकी अपेक्षा भक्ति में उसे अधिक शांति मिलती है।

मल्लाहों की स्त्रियों में उसका बड़ा आदर है, वह उनके झगड़े चुकाती है, किसी के बच्चे के लिए कुर्ता टोपी सीती है, किसी के लिए अर्जन या घुट्टी बनाती है। उनमें कोई बीमार पड़ता है तो उसके घर जाती है और दवा दारू की फिक्र करती है वह अपनी गिरी दिवाल को फिरसे उठा रही है। उस बस्ती के सभी नर-नारी उसकी प्रशंसा करते है और उसका यश गाते है। हाँ, अगर आदर नहीं है तो अपने घर में। सुमन इस तरह जी तोड़कर घर का सारा बोझ सँभाले हुए हैं, लेकिन मदन के मुँह से कृतज्ञता का एक शब्द भी नहीं निकलता। शान्ता भी उसके इस परिश्रम का कुछ मूल्य नहीं समझती। दोनों के दोनों उसकी ओर से निश्चिन्त है, मानो वह घर की लौंडी है और चक्की में जुते रहना ही उसका धर्म है। कभी-कभी उसके