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सेवासदन
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सिर में दर्द होने लगता है,कभी दौड़ धूप से बुखार चढ़ आता है, तब भी वह घर का सारा काम रीत्यानुसार करती रहती है। वह कभी-कभी एकान्तमे अपनी इस दीन दशापर घण्टो रोती रहती है, पर कोई ढाढस देनेवाला, कोई आँसू पोंछने वाला नहीं।

सुमन स्वभाव से ही मानिनी, सगर्वा स्त्री थी। वह जहाँ कही रही थी रानी बनकर रही थी। अपने पति के घर वह सब कष्ट झेलकर भी रानी थी। विलास नगर मे वह जबतक रही उसी का सिक्का चलता रहा, आश्रम में वह सेवा-धर्म पालन करके सर्वमान्य बनी हुई थी। इसलिए अब यहाँ इस हीनावस्था मे रहना उसे असहय था। अगर सदन कभी-कभी उसकी प्रशंसा कर दिया करता, कभी उससे सलाह लिया करता, उसे अपने घर की स्वामिनी समझा करता या शान्ता उसके पास बैठकर उसकी हाँ में हाँ मिलाती, उसका मन बहलाती तो सुमन इससे भी अधिक परिश्रम करती और प्रसन्नचित्त रहती। लेकिन उन दोनों प्रेमियों को अपनी तरंग में और कुछ न सूझता था। निशाना मारते समय दृष्टि केवल एक ही वस्तुपरक रहती है। प्रेमासक्त मनुष्य का भी यही हाल होता है।

लेकिन शान्ता और सदन की यह उदासीनता प्रेमलिप्साके ही कारण थी, इसमे सन्देह है। सदन इस प्रकार सुमन से बचता था, जैसे हम कुष्ठ रोगी से बचते है, उस पर दया करते हुए भी उसके समीप जानेकी हिम्मत नही रखते। शान्ता उसपर अविश्वास करती थी, उसके रूपलावण्य से डरती थी। कुशल यही थी कि सदन स्वयं सुमन से आँखे चुराता था, नही तो शान्ता इससे जल ही जाती। अतएव दोनों चाहते थे कि यह आस्तीन का सांप आँखो से दूर हो जाय, लेकिन संकोचवश वह आपस में भी इस विषय को छेड़ने से डरते थे।

सुमनपर यह रहस्य शनैः शनैः खुलता जाता था।

एक बार जीतन कहार शर्माजी के यहाँ से सदन के लिए कुछ सौगात लाया था। इसके पहले भी वह कई बार आया था, लेकिन उसे देखते ही सुमन छिप जाया करती थी। अबकी जीतन की निगाह उसपर पड़ गई।