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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/२७१

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सेवासदन
 


फिर क्या था, उसके पेट में चूहे दौड़ने लगे। वह पत्थर खाकर पचा सकता था, पर कोई बात पचाने की शक्ति उसमे न थी। मल्लाहों के चौधरी के पास चिलम पीने के बहाने गया और सारी रामकहानी सुना आया। अरे! यह तो कस्त्रीन है, खसम ने घर से निकाल दिया तो हमारे यहाँ खाना पकाने लगी, वहाँ से निकाली गई तो चीकमे हरजाईपन करने लगी, अब देखता हूँ तो यहाँ विराजमान है। चौधरी सन्नाटे में आ गया, मल्लाहिनों में भी इशारेबाजियाँ होने लगी। उस दिन से कोई मल्लाह सदन के घर का पानी न पीता, उनकी स्त्रियों ने सुमन के पास आना जाना छोड़ दिया। इसी तरह एक बार लाला भगतराम ईटों की लदाई का हिसाब करने आये। प्यार से मालूम हुई तो मल्लाह से पानी लाने को कहा। मल्लाह कुएँ से पानी लाया। सदन के घर में बैठे हुए बाहर से पानी मँगाकर पीना सदन की छाती में छुरी मारने से कम न था।

अन्त में दूसरा साल जाते जाते यहाँ तक नौवत पहुँची कि सदन जरा-जरा सी बात पर सुमन से झुँझला जाता और चाहे कोई लागू बात न कहे, पर उसके मन के भाव झलक ही पड़ते थे।

सुमन को मालूम हो रहा था कि अब मेरा निर्वाह यहाँ न होगा। उसने समझा था कि यही बहन-बहनोई के साथ जीवन समाप्त हो जायगा। उनकी सेवा करुँगी, एक टुकड़ा खाऊँगी और एक कोने में पड़ी रहूँगी। इसके अतिरिक्त जीवन में अब उसे कोई लालसा नहीं थी। लेकिन हा शोक! यह तख्ता भी उसके पैरो के नीचे से सरक गया और अब यह निर्दयी लहरों की गोद में थी।

लेकिन सुमन को अपनी परिस्थिति पर दु:ख चाहे कितना ही हुआ हो, उसे सदन या शान्ता से कोई शिकायत न थी। कुछ तो धार्मिक प्रेम और कुछ अपनी अवस्था के वास्तविक ज्ञान से उसे अत्यन्त नम्र विनीत बना दिया था। वह बहुत सोचती कि कहाँ जाऊँ, जहाँ अपनी जान-पहचान का कोई आदमी न हो लेकिन उसे ऐसा कोई ठिकाना न दिखाई देता। अभी तक उसकी निर्बल आत्मा कोई अवलम्ब चाहती थी। बिना