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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/२७७

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सेवासदन
 


की इच्छा न होती थी। अकस्मात् कुत्तों के भूँकने से किसी नये आदमी के गाँव आने की सूचना दी। मदनसिंह की छाती धड़कने लगी। कही सदन तो नहीं आ रहा है। किताब बन्द करके उठे तो पद्मसिंह को आते देखा। पद्मसिंहने उनके चरण छूए फिर दोनो भाइयों में बातचीत होने लगी ।

मदन-—सब कुशल हैं?

पद्म-—जी हाँ, ईश्वर की दया है।

मदन-भला उस बेईमान की भी कुछ खोज-खबर मिली है?

पद्म-—जी हाँ, अच्छी तरह है। दसवें-पाँचवें मेरे यहाँ आया करता है। में कभी-कभी हाल-चाल पुछवा लेता हूँ। कोई चिन्ता की बात नहीं है।

मदन-—भला वह पापी कभी हम लोगों की भी चर्चा करता है या बिल्कुल मरा समझ लिया? क्या यहाँ आने की कसम खा ली है। क्या हमलोग मर जायँगे तभी आवेगा? अगर उसकी यही इच्छा है तो हम लोग कहीं चले जायें। अपना घर द्वार ले अपना घर संभाले। सुनता हूँ, वहाँ मकान बनवा रहा है। वह तो वहाँ रहेगा और यहाँ कौन रहेगा। यह मकान जिसके लिये छोड़े देता है।

पद्म-—जी नहीं, मकान वकान कहीं नहीं बनवाता, यह आपसे किसी ने झूठ कह दिया। हाँ, चूने की कल खड़ी कर ली है और यह भी मालूम हुआ है कि नदी पार थोड़ी सी जमीन भी लेना चाहता है।

मदन--तो उमसे कह देना, पहले आकर इस घर में आग लगा जाय तब वहाँ जगह जमीन ले।

पद्म--यह आप क्या कहते हैं, वह केवल आप लोगों की अप्रसन्नता के भय से नहीं आता। आज उसे मालूम हो जाय कि आपने उसे क्षमा कर दिया तो सिर के बल दौड़ा आवे। मेरे पास आता है तो घण्टों आप ही की बातें करता रहता है। आपकी इच्छा हो तो कल ही चला आवे।

मदन--नहीं, मैं उसे बुलाता नहीं। हम उसके कोन होते है जो यहाँ आयेगा। लेकिन यहाँ आवे तो कह देना जरा पीठ मजबूत कर रखें। उसे देखते ही मेरे सिरपर शैतान सवार हो जायगा और मैं ठण्डा