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सेवासदन
 

मदन--क्या हुआ छठी तक पहुँच जायग, घूमधाम से छठी मनायेगे। बस कल चलो।

भामा फूली न समाती थी। हृदय पुलकित हो रहा था। जी चाहता था कि किसे क्या दे दूँ? क्या लुटा दूँ? जी चाहता था घर में सोहर उठे, दरवाजे पर शहनाई बजे, पडोसिने बुलाई जायँ। गाने बजाने की मंगल ध्वनि से गाँव गूँज उठे। उसे ऐसा ज्ञात हो रहा था, मानो आज संसार में कोई असाधारण बात हो गई है, मानो सारा संसार सन्तानहीन है और एक में ही पुत्र पौत्रवती हूँ।

एक मजदूर ने आकर कहा, भीजी एक साधु द्वारपर आये है। भामा ने तुरन्त इतनी जिन्स भेज दी जो चार साधुओं के खाने से भी न चुकती।

ज्यों ही लोग भोजन कर चुके, भामा अपनी दोनों लड़कियों के साथ मोल लेकर बैठ गई और आधी राततक गाती रही।

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जिस प्रकार कोई मनुष्य लोभ के वश होकर आभूषण चुरा लेता है, पर विवेक होनेपर उसे देखने में भी उसे लज्जा आती है, उसी प्रकार सदन भी सुमन से बचता फिरता था। इतना ही नहीं, वह उसे नीची दृष्टि से देखता था और उसकी उपेक्षा करता था। दिन भर काम करने के बाद सया को उसे अपना यह व्यवसाय बहुत अखरता, विशेष करके चूने के काम में उसे बड़ा परिश्रम करना पड़ता था। वह सोचता, इसी सुमन के कारण से यो घर से निकाला गया हैं। इसी ने मुझे यह वनवास दे रखा है। कैसे आराम से घरपर रहता था। न कोई चिन्ता थी ने कोई झंझट चैन से खाता था और मौज करता था। इसी ने मेरे सिर यह मुसीबत ढा दी। प्रेम की पहली उमंग में उसने उसका बनाया हुआ भोजन सा लिया था, पर अब उसे बड़ा पछतावा होता था। वह चाहता था कि किसी प्रकार इससे गला छूट जाय। यह वही सदन है जो सुमन पर जान देता था, उसकी