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सेवासदन ३३१

मुस्कानपर, मधुर बातोपर, कृपाकटाक्षपर अपना जीवनतक न्यौछावर करनेको तैयार था। पर सुमन आज उसकी दृष्टिमे इतनी गिर गयी है। वह स्वयं अनुभव करके भी भूल जाता था कि मानव प्रकृति कितनी चंचल है।

सदनने इधर वर्षों से लिखना-पढना छोड़ दिया था और जबसे चूनेकी कल ली, तो वह दैनिक पत्र भी पढनेका अवकाश न पाता था। अब वह सझता था कि यह उन लोगोका काम है, जिन्हें कोई काम नही है, जो सारे दिन पड़े मक्खियाँ मारा करते है । लेकिन उसे बालोंको सँवारने हारमोनियम बजानेके लिये न मालूम कैसे अवकाश मिल जाता था।

कभी-कभी पिछली बातोका स्मरण करके वह मनसे कहता है, मै उस समय कैसा मुर्ख था,इसी सुमनके पीछे लट्टू हो रहा था? वह अब अपने चरित्रपर घण्मड करता था। नदी के तटपर वह नित्य स्त्रियों को देखा करता था, पर कभी उसके मनमे कुभाव न पैदा होते थे। सदन इसे अपना चरित्रबल समझता था।

लेकिन जब गांभणी शान्ताके प्रसूतका समय निकट आया,और वह बहुधा अपने कमरे में बन्द, मलीन, शिथिल पड़ी रहने लगी तो, सदन को मालूम हुआ कि मैं बहुत धोखे में था। जिसे मै चरित्रबल समझता था। वह वास्तवमे मेरे तृष्णाओं के सन्तुष्ट होने का फलमात्र था। अब वह कामपर से लौटता तो शान्ता मधुर मुस्कान के साथ उसका स्वागत न करती, वह अपनी चारपाई पर पडी रहती। कभी उसके सिर में दर्द होता, कभी शरीर में,कभी ताप चढ़ आता, कभी मतली होने लगती, उसका मुखचन्द्र कान्तिहीन हो गया था, मालूम होता था शरीर में रक्त ही नही है। सदन को उसकी यह दशा देखकर दुःख होता, वह घण्टों उसके पास बैठ कर उसका दिल बहलाता रहता, लेकिन उसके चेहरे से मालूम होता था कि उसे वहाँ बैठना अखर रहा है। वह किसी-न-किसी ‌बहाने से जल्द ही उठ जाता। उसकी विलासतृष्णाने मन को फिर चंचल करना शुरू किया, कुवासनाएँ उठने लगी। वह युवती मल्लाहिनों से हँसी करता,