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पृष्ठ:सेवासदन.djvu/२८१

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३३४ सेवासदन


थी । स्वयं इस कल्पित बारातका दूल्हा बना हुआ सदन यहाँ से जाति सेवाका संकल्प करके उठा और नीचे उतर आया। वह अपने विचारों में ऐसा लीन हो रहा था कि किसी से कुछ न बोला। थोड़े ही दूर चला था कि उसे सुन्दर वाईके भवनके सामने बहुत से मनुष्य दिखाई दिये। उसने एक आदमी में पूछा, यह कैसा जमघट है? मालूम हुआ कि आज कुंवर अनिरुद्धसिंह यहाँ एक "कृषि सहायक सभा" खोलनेवाले है। सभा का उद्देश्य होगा, किसानों को जमीदारों के अत्याचार से बचाना। सदनके मन में अभी-अभी कृषकों के प्रति जो सहानुभूति प्रकट हुई थी वह मन्द पड़ गई। वह जमीदार था और कृषकों पर दया करना चाहता था, पर उसे मंजूर न था कि कोई उसे दवायें और किसानों को भड़काकर जमींदारो के विरुद्ध खड़ा कर दे। उसने मन से कहा, यह लोग जमींदारो सत्वों को मिटाना चाहते है। देवभाव से हो प्रेरित होकर इन लोगो ने यह संस्था खोलने का विचार किया है, तो हम लोगोंको भी सतर्क हो जाना चाहिये,हमको अपनी रक्षा करनी चाहिये। मानव प्रकृति को दबाव से कितनी घृणा है। सदनने यहांँ ठहरना व्यर्थ समझा। नौ बज गये थे। वह घरको लौटा।

५६

संध्याका समय है। आकाशपर लालिमा छाई हुई है और मन्द-वायु गंगाकी लहरोंपर क्रीड़ा कर रही है,उन्हें गुदगुदा रही है। वह अपने करुण नेंत्रोसे मुस्कराती है और कभी-कभी खिलखिलाकर हंँस पड़ती है,तब उसके मोती के दाँत चमक उठते है सदनका रमणीय झोपड़ा आज फूलों और लताओं से सजा हुआ है। दरवाजे पर मल्लाहो की भीड़ है। अन्दर उनकी स्त्रियांँ बैठी सोहर गा रही है। आंँगनमें भट्ठी खुदी हुई है और बड़े-बड़े हण्डे चढ़े हुए है। आज सदनके नवजात छठी है,यह उसीका उत्सव है।

लेकिन सदन बहुत उदास दिखाई देता है। वह सामनेके चबूतरे